अश्वत्थामा
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अश्वत्थामा का जन्म दिव्य था, अयोनिजा माता पिता द्वय की योनिजा संतान! वस्तुतः मानवीय अमरता की कस्तूरी खोज में, अश्वत्थामा की अन्वेषणा एक बड़ा पड़ाव है।
उनकी माता “कृपि” और पिता “द्रोण”, दोनों ही का जन्म स्त्री योनि से नहीं हुआ था। उनदोनों के जन्म का कारण केवल उनके अपने अपने पितामात्र ही थे। ऐसे अयोनिजा युगल का पुत्र, महारथी अश्वत्थामा हुआ।
यों तो अश्वथामा को शिव, काल, क्रोध और यम का संयुक्तांश माना जाता है। तथापि उनके देह स्वरूप पर इंद्र के अश्व “उच्चै:श्रवा” का पूर्ण प्रभाव था। जब वे जन्मे तो स्वर्ग के उस अश्व ने सभी अश्वों के साथ गर्जन किया था।
इसी कारण उनका नाम “अश्व-स्थामा” पड़ा, यानी कि अश्व का स्वर, जोकि व्यञ्जन-संधि के नियमों में बंधकर “अश्वत्थामा” हो गया। “उच्चै:श्रवा” के ही कारण, उनकी देह का वर्ण हरित था, रोग व घाव प्रतिरोधक क्षमता भी बहुत अच्छी थी।
ऋग्वेद के अनुसार, जब पर्वत और वन प्रान्तर मेघों से आच्छादित हो जाते हैं, तब पर्वत शिखर “उच्चै:श्रवा” की पीठ की भांति लगते हैं, उनपर उग आई कोमल वनस्पति इंद्र के क्षौरकेशों के सदृश होती है, यानी कि दाढ़ी के केशों की भांति!
यहाँ आश्चर्यचकित करने वाला अन्वेषण ये प्राप्त होता है कि वनस्पति, उच्चै:श्रवा और अश्वत्थामा के हरित वर्ण का कारण एक ही है और वो है पादप-तरल जिसे आज “क्लोरोफिल” के नाम से जाना जाता है।
भला मनुष्य की देह में “क्लोरोफिल” कैसे हो सकता है?
-- वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ये हास्यास्पद प्रतीत होता है। किन्तु क्या ये विज्ञान, वास्तव में विज्ञान है? या सोलहवीं शताब्दी से आरंभ हुई पश्चिमी थेथरई है?
बहरहाल, बहरकैफ़।
जो महत्त्व मानवदेह में हीमोग्लोबिन का है, वही पादप ढाँचे में क्लोरोफिल का है। दोनों में रंग का भेद होता है। एक सुर्ख लाल है, तो एक कच्च हरा है। इसका कारण दोनों में भिन्न केंद्रीय अणु का होना है।
हीमोग्लोबिन का केंद्रीय अणु “लौह” है और क्लोरोफिल का “मैग्नीशियम”। रैक्टिविटी सीरीज में, मैग्नीशियम का स्थान लौह से उपर है। ऐसे सक्रिय तत्व के संपर्क में मानव कोशिकाएं नहीं रह सकतीं।
चूंकि उनमें केवल एक ही आवरण होता है, कोशिका झिल्ली। वहीं पादप कोशिका में एक और आवरण होता है, कोशिका भित्ति। सो, यदि क्लोरोफिल को मानवदेह में सफलतापूर्वक लाना है, तो कोशिकाओं को भित्ति का विकास करना होगा।
ऐसा करने से, मानव देह की वैलिडिटी कमसकम तीस गुना बढ़ जाएगी!
और यही महारथी अश्वत्थामा के साथ हुआ। उनकी देह तीन हज़ार साल तक आत्मा के उपभोग योग्य रही। उनकी देह से वृक्षों की भांति प्रकटे गोंद आदि को कोढ़ और पीप का स्वरूप मान, लोक ने उनका त्याग कर दिया था।
वास्तव में, मनुष्य की जीवन प्रत्याशा का एकमात्र पता अश्वत्थामा ही हैं! केवल उसी विधि का प्रयोग कर मनुष्य स्वयं को तीन हज़ार साल से अधिक जीवित बनाए रख सकता है।
तो ये था अश्वत्थामा के जन्म का रहस्य! फ़िलहाल, योग्य होगा कि अश्वत्थामा के जीवन-रहस्यों की ओर रुख़ किया जाए!
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भारतीय लोककथाओं में महारथी अश्वत्थामा, यानी कि तमाम अवगुणों के प्रयाग!
लोक मानता है कि अधर्म की श्रेणी में आने वाला स्यात् ही ऐसा कोई कार्य हो, जो उन्होंने न किया हो। उन पर लगे कुछ प्रमुख आरोपों में, सोए हुए बालकों की हत्या करना और गर्भ पर ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का विशेष उल्लेख है।
-- इन्हीं अपराधों के एवज़ में, उन्हें श्रीकृष्ण ने समय के अंत तक पृथ्वीलोक में भटकने का शाप दिया था।
किन्तु ये पूर्णतया सत्य नहीं! इस तथ्य में कुछ मिथ्या अवधारणा भी जुड़ी है। इस कथा के मूल और एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ वेदव्यासकृत “महाभारत” का कहना है कि ये शाप मात्र तीन हज़ार वर्ष का था!
अब तीन हज़ार वर्ष को, किस भाँति लोक ने अनंत कालखंड का नाम दे दिया, इसपर तो बहुत चर्चा करने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। ये तो स्वसंवेद्या स्पष्टीकृत होना चाहिए।
चूंकि सभी जानते हैं, लोक और समाज में प्रचारित प्रसारित अवधारणाएं कितनी संक्रामक होती हैं। उन्हें अपने निवास की निर्मिति हेतु किसी तथ्य अथवा तर्क की भी आवश्यकता नहीं होती।
और ऐसी स्थिति में, यदि मूल-कथा का आधार दस हज़ार भोजपत्रों में अंकित डेढ़ लाख श्लोकों का ऐतिहासिक दस्तावेज हो, तब तो पूछिए ही मत कि किस तरह नायक और खलनायक के सुनिश्चितीकरण में बड़े बड़े खेल हो जाएंगे।
महारथी अश्वत्थामा का खलनायकत्व भी इसी तरह के खेलों का परिणाम है!
तथ्य बतौर उल्लेखनीय है कि वेदव्यासकृत महाभारत के सौप्तिकपर्व में अश्वत्थामा को मिले शाप का विस्तृत उल्लेख किया गया है, सोलहवाँ अध्याय।
दसवें श्लोक की दूसरी पङ्क्ति, श्रीकृष्णोवाच : “त्रीणि वर्षसहस्राणि चरिष्यसि महीमिमाम्!”
(अर्थात् आज से तीन हज़ार वर्षों तक, तुम पृथ्वी पर भटकते रहोगे!)
आज इस शाप को पांच हज़ार बीत चुके। पिछले दो हज़ार साल में, जितनों ने भी अश्वत्थामा को खोजने देखने का दावा किया है, वे सब अटेंशन सीकर हैं।
इस अध्याय से कुछ पहले का तेरहवाँ अध्याय, अश्वत्थामा को गर्भ का नाश करने के अपराध से मुक्त करता है!
अश्वत्थामा ने जब दिव्यास्त्र का प्रयोग किया, तब उनके पास धनुष नहीं था। उन्होंने बाएं हाथ से एक सींक उठाई और “अपांडवायेति रुषा व्यसृजद्” कहकर ब्रह्मास्त्र का आह्वान किया।
इस सूक्ति का अर्थ होता है : “यह अस्त्र समस्त पांडवों का नाश कर डाले!” -- किन्तु पांडवों की सुरक्षा और उत्तरा के विषय में एक ऋषि के वचन की रक्षा करने हेतु इसका रुख गर्भनाश हेतु मोड़ दिया गया।
किन्तु आरोप का अधिकारी कौन? अश्वत्थामा!
वेदव्यासकृत महाभारत के सौप्तिकपर्व का ही, आठवां अध्याय अश्वत्थामा को बालकों की हत्या के आरोप से मुक्त करता है!
ये आरोप निराधार है, शास्त्रहीनता है कि उन्होंने सोते बालकों का वध किया। बल्कि वे तो पांचाल शिविर में अपने शत्रु धृष्टद्युम्न से युद्ध करने की इच्छा से गए थे। जिसे निद्रा से जगा कर, युद्ध में पराजित कर यमलोक भेजा गया।
तत्पश्चात् वे शेष पांचाल सेना से युद्ध कर ही रहे थे कि कोलाहल सुनकर पांडवों के पुत्र भी आ गए। युद्ध हुआ और एक एक कर पराजित होते गए, मृत्यु को प्राप्त होते गए।
किन्तु समस्त आरोप महारथी अश्वत्थामा पर लगे! जबकि वो व्यक्ति अपने गुणों से तीन हज़ार वर्ष जीने का अधिकारी था, तथापि उसे मिले श्राप को ही उसके जीवन का कारण माना जाता रहा।
मुझे प्रतीत नहीं होता कि महाभारत काल के पश्चात् किसी पात्र ने लोक की इतनी घृणा और अपयश को भोगा होगा, जितना कि अश्वत्थामा ने भोगा है।
इसमें किसका दोष?
-- महाभारतकार का? नहीं!
-- अश्वत्थामा का? नहीं!
-- लोक जनमानस का? नहीं! वे तो वही जानते हैं जो शास्त्र का उद्धरण देकर ज्ञानीजनों द्वारा उन्हें बताया जाता है।
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मेरे इस देश में, भागवताचार्यों की एक सेना निर्मित करने योग्य नफरी होने के पश्चात् भी, लोक जनमानस अज्ञान के अन्धकार में जी रहा है।
और यही शास्त्र-परिशीलन का आश्रय-अभाव, जनमानस के विचारों में भ्रम-राक्षस को जन्म देता है।
इति।
✍️योगी अनुराग ©®
[ चित्र : इंटरनेट से साभार। ]
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