भक्ति मनुष्य के अंदर से प्रकट होती है | ह्रृदय की शुद्धता जितनी बढती जाती है भक्ति का भाव भी उतना ही बढता जाता है | मन बुद्धि और अहम् को निर्मल बनाने के लिए ही संसार मे बहुत प्रकार की साधनायें कराई जाती हैं | सभी साधनाओं का तात्पर्य यही है कि कैसे भी मनुष्य के मन को निर्मल बनाना |
रामायण मे आया है
निर्मल मन जन सो मोहि पावा |
मोही कपट छल छिद्र न भावा ||
यह हमारे उपर निर्भर करता है कि हम अपने मन को कितने समय में निर्मल बना पाते हैं | कभी देखने को मिलता है सारा जीवन बीतने पर भी हम वह मुकाम हॉसिल नहीं कर पाते, क्योंकि हमने अपने मन को संसार से हटाकर अपने ईष्ट मे लगाया ही नहीं | जितना प्रेम हमने संसारिक सुख सुविधाओं से किया यदि उतना ही प्रेम हम अपने ईष्ट, या गुरू से किया होता तो निश्चित रूप से हम मन की वह निर्मलता प्राप्त कर गये होते जिससे भक्ति का उदय होता है |
समय कोई सा भी हो भक्ति की परिभाषा एक ही होती है | जब भक्त को भगवान के सिवाय संसार में कुछ भी दिखाई नहीं देता, मन शुद्ध व निर्मल हो जाता है तब उस भक्त के लिए भगवान को स्वयं आना पडता है |
शबरी के अंदर भक्ति प्रकट हुई तो भगवान राम को चलकर आना पडा था |
भक्ति प्रहलाद के अंदर जाग्रत हुई तो नारायण को नरसिंह का रूप धारण करके आना पडा था |
पुर्ण भक्ति वह अवस्था है जिसके कारण ईष्ट को विवष होकर आना ही पडता है |
शायद कलयुग में भक्त का अकाल पड गया है नहीं तो भगवान तक कोई कलयुग की पहुँच नहीं है वह हर समय एक सा ही होते हैं |
जब भी किसी भक्त ने बुलाया उन्हे आना ही पडा है |