नेतन्याहू जब आज़ से ढाई तीन दशक पहले प्रधानमंत्री थे तभी उन्होंने स्पष्ट किया था कि वह ईरान के प्रॉक्सी के साथ युद्ध नहीं लड़ना चाहते बल्कि वह हर एक देश जो कभी न कभी खुलकर इसराइल का विरोध किया हो अथवा फ़िलिस्तीन के लिए प्रयास किया हो उसे समाप्त करना चाहते हैं।
अमेरिका में सत्ता बदली लेकिन नेतेन्याहू का यह रवैया चाहे वह प्रधानमंत्री रहे हो अथवा नहीं, कभी नहीं बदला। एक के बाद एक उन्होंने अपने राह से काटे हटाये। लीबिया में गद्दाफी ने बहुत शांति स्थापित की और विकास किया लेकिन इसराइल के संकल्प के आगे गद्दाफी के ख़िलाफ़ ऐसा विद्रोह हुआ कि लीबिया आज तक नहीं उबर पाया और गृह युद्ध में बुरी तरह फस गया। इसी तरह एक समय सूडान ने भी इज़राइल के मामले में अपनी कुदृष्टि डाली थी और आज सूडान दो हिस्सों में टूट गया है और उन दोनों हिस्सों में गृह युद्ध जारी है। तीसरा बड़ा देश है इराक़, इराक़ में सद्दाम हुसैन ने इज़रायल के विरोध में चाल चलने का प्रयास किया। सद्दाम को अंततः फाँसी पर लटका दिया गया। चौथा देश था सीरिया जिसे फ़िलिस्तान की चिंता सवार थी, वहाँ असद परिवार इज़राइल का खुलकर विरोध करता रहा लेकिन वहाँ भी अंततः इज़राइल ने सफलता प्राप्त की और सीरिया को भी अब गृहयुद्ध में धकेला जा चुका है।
केवल एक ही देश अब बचा था जो इसराइल के अस्तित्व के लिए ख़तरा था और जो चालाक भी था यानी ईरान, अब वह भी जाल में फसाया जा चुका है। अमरीका के बमबारी के बाद ईरान ने प्रत्युत्तर देकर ख़ुद को नेतन्याहू के जाल में फँसा दिया है। फ़िलहाल अमेरिका इज़राइल विरोधी देशों में यह एक मात्र स्थिर देश था और बेहद लंबे समय से युद्ध से ख़ुद को बचाकर रखा था लेकिन प्रत्यक्ष युद्ध में कूदकर इसने वहीं गलती की है जो बाकियों ने की है। यदि अमेरिका और इसराइल एक दो सप्ताह में ईरान को भी गृह युद्ध में धकेल दें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि ऐसा होता है तो नेतन्याहू दुनिया के ऐसे चुनिंदा नेता होंगे जिसने इतने सारे देशों को मिटाने की शपथ ली और उसका लक्ष्य अपने ही राजनीतिक काल में पा लिया हो।
ईरान के लिए अगला सप्ताह बहुत कठिन है। युद्ध लड़ने की तैयारी रखना और युद्ध में फस जाना दो बातें होती हैं। ईरान को इजरायल ने अपने समय के हिसाब से फसाया है, वह लड़ाई की तैयारी करके ही ईरान को लपेटे में लिया