संस्कृत में न्याय (नियन्ति अनेन ; नि + इ + घं) का एक अर्थ समानता, सादृश्य, लोकरूढ़ नीतिवाक्य, उपयुक्त दृष्टान्त, निर्देशना (likeness, analogy, a popular maxim or apposite illustration) आदि होता है। अर्थात् कोई विलक्षण घटना सूचित करनेवाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो, 'न्याय' कहलाती है। ऐसे दृष्टान्त वाक्यों (या कहावतों) का व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पड़ने पर होता है।
'लोकन्याय' का अर्थ है, समाज में प्रचलित और सुप्रसिद्ध उदाहरणों को एक नाम दे देना और उचित स्थान पर उस नाम का उपयोग करके कम शब्दों में बड़ी बात कह देना। लोकरूढ नीतिवाक्यों के प्रयोग से कम शब्दों में और तर्कसम्मत ढंग से विचार व्यक्त करने में सुविधा होती है। संस्कृत में इनका प्रयोग व्याकरण और आयुर्वेद ग्रन्थों में हुआ है।[१][२] शास्त्रों में जटिल बातों को सरल तरीके से कहने की अन्य युक्तियाँ भी हैं, जैसे- तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, अर्थाश्रय, कल्पना, वादमार्ग आदि।
न्याय दो प्रकार के होते हैं - लौकिकन्याय तथा शास्त्रीयन्याय।
संस्कृत में लौकिक न्याय की सूक्तियों के भी अनेक संग्रह-ग्रन्थ हैं। इनमें भुवनेश की लैकिकन्यायसाहस्री के अलावा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावली, लौकिकन्यायकोश, लौकिकन्यायरत्नाकर आदि हैं। लौकिक न्याय संग्रह नामक ग्रंथ के कर्त्ता रघुनाथ हैं। इसमें ३६४ न्यायों की सूची हैं।
नीचे संस्कृत में प्रयुक्त कुछ न्याय (लोकरूढ़ नीति वाक्यांश) दिये हुए हैं।
अरुन्धतीदर्शनन्याय - ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना
शाखाचंद्रन्याय -
काकतलीयन्याय -
अजाकृषाणीन्याय -
अन्धचटकन्याय - अन्धे के हाथ बटेर लगना
अन्धगजन्याय - अन्धा और हाथी
अन्धगालांलन्याय - अन्धा और गाय की पूँछ
अन्धपंगुन्याय - अन्धा और लंगडा
अन्धदर्पणन्याय - अन्धा और दर्पण
नष्टाश्वदग्धरथन्यास - नष्ट अश्व और जला हुआ रथ
अन्धपरम्परान्याय - अन्ध परम्परा
अरण्यरोदनन्याय - वन में रोना
स्थूणानिखनन्याय - खूँटे को हिलाकर पक्का करना
अर्धकुक्कुटीन्याय - आधी मुर्गी खाने के लिये, आधी अण्डे देने के लिये
अशोकवनिकान्याय - अशोक वाटिका न्याय (सीता को अशोक वाटिका में ही क्यों रखा?)
अश्मलोष्टन्याय - पत्थर से ईंट (ढेला) नरम होता है। यह न्याय यह दर्शाने के लिये उपयुक्त होता है कि शेर को भी कभी 'सवा शेर' मिल जाता है। रूई की अपेक्षा ढेला बहुत कठोर है किन्तु पत्थर उससे भी अधिक कठोर होता है।
दृषदिष्टिकान्याय -
कण्ठचामीकरन्याय - गले में जेवर का न्याय
कदम्बकोरक (कदम्बगोलक) न्याय - कदम्ब की कली का न्याय ; यह न्याय तब उपयुक्त होता है जब उदय के साथ ही विकास आरम्भ हो जाय। ज्ञातब्य है कि कदम्ब का कली/फूल से फल बनने की प्रक्रिया एकसाथ ही होती है।
कफोणीगुडन्याय - कोहनी पर लगे गुड का न्याय (चाट भी नहीं सकते)
कम्बलनिर्णेजनन्याय - कंबल धोने का न्याय (काम कुछ, परिणाम कुछ और)
काकदन्तपरीक्षान्याय (काकदन्तगवेषणन्याय) - कौवे के दांत गिनना (ब्यर्थ का काम करना)
काकाक्षिगोलकन्याय - कौवे के आंख के गोलक का न्याय (दो भिन्न अर्थ सूचित करने वाले शब्द या शब्द-समूह)
कूपखानकन्याय - कुआँ खोदने वाले का न्याय (अंगों पर मिट्टी लगी हो तो भी कुएं से पानी निकलने पर धो सकते है)
कूपमण्डूकन्याय - कुएं का मेढक (जिसकी सोच सीमित और संकुचित हो)
कूपयन्त्रघटिकान्याय - रहट की बाल्टी (घटिका) का न्याय
खलेकपोतन्याय - खलिहान पर कबूतर (एक साथ धावा बोलते हैं)
गुडजिव्हिकान्याय - गुड और जीभ (मीठा लेप की हुई औषधि)
घट्टकुटीप्रभातन्याय - चुंगी नाके की प्रभात
घुणाक्षरन्याय - दीमक और अक्षर का न्याय (दीमक के काटने से अक्षर बनना)
चोरापराधेमाण्डव्यदण्डन्याय - चोर करे अपराध और संन्यासी को फांसी
तमोदीपन्याय - अंधेरे को देखने के लिये दीया (दीप)
देहलीदीपन्याय - दहलीज पर रखा हुआ दीया
तुष्यतुदुर्जनन्याय - दुर्जनों का तुष्टीकरण
तृणजलौकान्याय - घास और जोंक का न्याय
दण्डापूपन्याय - लकडी पर लगी मिठाई (लकडी के साथ ही गई)
क्षीरनीरन्याय x तिलतण्डुलन्याय (हंसक्षीरन्याय) - दूध का दूध, पानी का पानी
विषकृमिन्याय - विष के कृमि (विष में ही जिंदा रहते हैं)
स्वामिभृत्यन्याय - मालिक और नौकर (संबंध)
वीचितरंन्याय - लहरों से लहर पैदा होती है।
वृध्दकुमारीवाक्य (वर) न्याय - वृद्ध कुमारी का वाक्य (प्रस्ताव)
सूचीकटाहन्याय - सूई और कडाही
नृपनापितन्याय - राजा और नाई
पिष्टपेषणन्याय - आटे को पीसना (से क्या लाभ?)
प्रधानमल्लनिर्बहणन्याय - मुख्य योद्धा (मल्ल) का हार जाना
मण्डूकप्लुतिन्याय - मेंढक की छलांग
वटेयक्षन्याय - बरगद का भूत (सुनी-सुनाई बात)
समुद्रतरंग्न्याय - समुद्र और तरंग (एक ही चीज के रूप)
स्थालीपुलाकन्याय - पके भात की परीक्षा के लिये एक दाने की परीक्षा ही काफी है।
कुछ न्यायों का परिचय
कुछ प्रचलित न्यायों का परिचय अकारादि क्रम से नीचे दिया गया है-
(१) अजाकृपाणीय न्याय—कहीं तलवार लटकती थी, नीचे से बकरा गया और वह संयोग से उसकी गर्दन पर गिर पडी़। जहाँ दैवसंयोग से कोई विपत्ति आ पड़ती है वहाँ इसका व्यवहार होता है।
(२) अजातपुत्रनामोत्कीर्तन न्याय—अर्थात् पुत्र न होने पर भी नामकरण होने का न्याय। जहाँ कोई बात होने पर भी आशा के सहारे लोग अनेक प्रकार के आयोजन बाँधने लगते हैं वहाँ यह कहा जाता है।
(३) अध्यारोप न्याय—जो वस्तु जैसी न हो उसमें वैसे होने का (जैसे रज्जु में सर्प हीने का) आरोप। वेदांत की पुस्तकों में इसका व्यवहार मिलता है।
(४) अंधकूपपतन न्याय—किसी भले आदमी ने अंधे को रास्ता बतला दिया और वह चला, पर जाते जाते कूएँ में गिर पडा़। जब किसी अनधिकारी को कोई उपदेश दिया जाता है और वह उसपर चलकर अपने अज्ञान आदि के कारण चूक जाता है या अपनी हानि कर बैठता है तब यह कहा जाता है।
(५) अंधगज न्याय—कई जन्मांधों ने हाथी कैसा होता है यह देखने के लिये हाथी को टठोला। जिसने जो अंग टटोल पाया उसने हाथी का आकार उसी अंग का सा समझा। जिसने पूँछ टटोली उसने रस्सी के आकार का, जिसने पैर टटोला उसने खंभे के आकार रस्सी के आकार का, जिसने पैर टटोला उसने खंभे के आकार का समझा। किसी विषय के पुर्ण अंग का ज्ञान न होने पर उसके संबंध में जब अपनी अपनी समझ के अनुसार भिन्न भिन्न बाते कही जाती हैं तब इस उक्ति का प्रयोग करते हैं।
(६) अंधगोलांगूल न्याय—एक अंधा अपने घर के रास्ते से भटक गया था। किसी ने उसके हाथ में गाय की पूँछ पकडा़कर कह दिया कि यह तुम्हें तुम्हारे स्थान पर पहुँचा देगी। गाय के इधर उधर दौड़ने से अंधा अपने घर तो पहुँचा नहीं, कष्ट उसने भले ही पाया। किसी दुष्ट या मूर्ख के उपदेश पर काम करके जब कोई कष्ट या दुःख उठाता है तब यह कहा जाता है।
(७) अंधचटक न्याय—अंधे के हाथ बटेर।
(८) अंधपरंपरा न्याय—जब कोई पुरुष किसी को कोई काम करते देखकर आप भी वही काम करने लगे तब वहाँ यह कहा जाता है।
(९) अंधपंगु न्याय—एक ही स्थान पर जानेवाला एक अंधा और एक लँगडा़ यदि मिल जायँ तो एक दुसरे की सहायता से दोनों वहाँ पहुँच सकते हैं। सांख्य में जड़ प्रकृति और चेतन पुरुष के संयोग से सृष्टि होने के दृष्टांत में यह उक्ति कही गई है।
(१०) अपवाद न्याय—जिस प्रकार किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान हो जाने से भ्रम नहीं रह जाता उसी प्रकार। (वेदांत)।
(११) अपराह्नच्छाया न्याय— जिस प्रकार दोपहर की छाया बराबर बढती जाती है उसी प्रकार सज्जनों की प्रीति आदि के संबंध में यह न्याय कहा जाता है।
(१२) अपसारिताग्रिभूतल न्याय— जमीन पर से आग हटा लेने पर भी जिस प्रकार कुछ देर तक जमीन गरम रहतौ है उसी प्रकार धनी धन के न रह जाने पर भी कृछ दिनों तक अपनी अकड रखता है।
(१३) अरण्यरोदन न्याय— जंगल में रोने के समान बात। जहाँ कहने पर कोई ध्यान देनेवाला न हो वहाँ इसका प्रयोग होता है।
(१४) अर्कमधु न्याय— यदि मदार से ही मधु मिल जाय तो उसके लिये अधिक परिश्रम व्यर्थ है। जो कार्य सहज में हो उसके लिये इधर उधर वहूत श्रम करने की आवश्यकता नहीं।
(१५) अर्द्धजरतीय न्याय— एर ब्राह्मण देवता अर्थकष्ट से दुःख हो नित्य अपनी गाय लेकर बाजार में बेचने जाते पर वह न बिकती। बात यह थई कि अवस्था पूछने पर वे उसकी बहुत अवस्था बतलाते थे। एक दिन एक आदमी ने उनेस न बिकने का कारण पूछा। ब्राह्णण ने कहा जिस प्रकार आदमी की अवस्था अधिक होने पर उसकी कदर बढ जाती है उसी प्रकार मैंने गाय के संबंध में भी समझा था। उसने आगे ऐसा न कहने की सलाह दी। ब्राह्मण ने कोचा कि एक बार गाय को बुड्ढी कहकर अब फिर जवान कैसे कहूँ। अंत में उन्होंने स्थिर किया कि आत्मा तो बुड्ढी होती नहीं देह बुड्ढी होती है। अतः इसे मैं 'आधी बुड्ढी आधी जवान' कहूँगा। जब किसी की कोई बात इस पक्ष में भई और उस पक्ष में भी हो तब यह उक्ति कही जाती है।
(१६) अशोकवनिका न्याय— अशोक बन में जाने के समान (जहाँ छाया सौरम आदि सब कुछ प्राप्त हो)। चब किसी एक ही स्थान परसब कुछ प्राप्त हो लाय और कहीं जाने की आवश्यकता न हो तब यह कहा जाता है।
(१७) अश्मलोष्ट न्याय— अर्थात् तराजू पर रखने के लिये पत्थर तो ढेले से भी भारी है। यह विषमता सूचित करने के अवसर पर ही कहा जाता है। जहाँ दो वस्तुओं में सापेक्षिकता सूचित करनी होती है। वहाँ 'पाषाणेष्टिक न्याय' कह जाता है।
(१८) अस्नेहदीप न्याय— बिना तेल के दीये की सी बात। थोडे ही काल रहनेवाली बात देखकर यड कहा जाता है।
(१९) अस्नेहदप न्याय— साँप के कुंडल मारकर बैठने के समान। किसी स्बाभाविक बात पर।
(२०) अहि नकुल न्याय— साँप नेवले के समान। स्वाभाविक विरोध या बैर सूचित करने के लिये।
(२१) आकाशापरिच्छिन्नत्व न्याय— आकाश के समान अपरिच्छिन्न।
(२२) आभ्राणक न्याय—लोकप्रवाद के समान।
(२३) आम्रवण न्याय—जिस प्रकार किसी वन में यदि आम के पेड़ अधिक होते हैं तो उसे 'आम का वन' ही कहते हैं, यद्यपि और भी पेड़ उस वन में रहते हैं, उसी प्रकार जहाँ औरों को छोड़ प्रधान वस्तु का ही उल्लेख किया जाता है वहाँ यह उक्ति कही जाती है।
(२४) उत्पाटितदतनाग न्याय—दाँत तोडे़ हुए साँप के समान। कुछ करने धरने या हानि पहुँचाने में असमर्थ हुए मनुष्य के संबंध में।
(२५) उदकनिमज्जन न्याय—कोई दोषी है या निर्दोष इसकी एक दिव्य परीक्षा प्राचीन काल में प्रचलित थी। दोषी को पानी में खडा़ करके किसी ओर बाणा छोड़ते थे और बाण छोड़ने के साथ ही अभियुक्त को तबतक डूवे रहने के लिये कहते थे जबतक वह छोडा़ हुआ बाण वहाँ से फिर छूटने पर लौट न आवे। यदि इतने बीच में डूबनेवाले का कोई अंग बाहर न दिखाई पडा़ तो उसे निर्देष समझते थे। जाहाँ सत्या- स्तय की बात आती है वहाँ यह न्याय कहा जाता है।
(२६) उभयतः पाशरज्जु न्याय—जहाँ दोनों ओर विपत्ति हो अर्थात् दो कर्तव्यपक्षों में से प्रत्येक में दुःख हो वहाँ इसका व्यवहार होता है। 'साँप छछूँदर की गति'।
(२७) उष्टूकंटक भक्षण न्याय—जिस प्रकार थोडे़ से सुख के लिये ऊँट काँटे खाने का कष्ट उठाता है उसी प्रकार जहाँ थोडे़ से सुख के लिये अधिक कष्ट उठाया जाता है वहाँ यह कहावत कही जाती है।
(२८) ऊपरवृष्टि न्याय—किसी बात का जहाँ कोई फल न हो वहाँ कहा जाता है।
(२९) कंठचामीकर न्याय—गले में सोने का हार हो और उसे इधर उधर ढूढ़ँता फिरे। आनंदस्वरूप ब्रह्म के अपने में रहते भी अज्ञानवश सुख के लिये अनेक प्रकार के दुःख भोगने के दृष्टांत में वेदांती कहते हैं।
(३०) कदंबगोलक न्याय—जिस प्रकार कदंब के गोले में सब फूल एक साथ हो जाते हैं, उसी प्रकार जहाँ कई बातें एक साथ हो जाती हैं वहाँ इसे कहते हैं। कुछ नैयायिक शब्दो- त्पत्ति में कई वर्णों के उच्चारण एक साथ मानकर उसके दृष्टांत में यह कहते हैं। यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार कदंब में सब तरफ किजल्क होते हैं वैसे सब्द जहाँ उत्पन्न होता है उसके सभी ओर उसकी तरंगों का प्रसार होता है।
(३१) कदलीफल न्याय—केला काटने पर ही फलता है इसी प्रकार नीच सीधे कहने से नहीं सुनते।
(३२) कफोनिगुड न्याय—सूत न