OmParkash Garg's Album: Wall Photos

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बहू का ससुराल में समायोजन की अवधि ।

बहू जब एक परिवेश से दूसरे परिवेश में प्रवेश करती है तो उसे सामंजस्य बिठाने में समय लगता है । मायका छोड़कर ससुराल आई एक लड़की हमेशा अपनी माँ और सास के व्यवहार में तुलनात्मक अध्ययन करती है । ननदों की तुलना अपनी बहनों से और भाइयों की तुलना अपने देवरों से करती है । यह एक विचारणीय अवधि होती है , जिसमें बहु अपने को एडजस्ट करने में व्यतीत करती है ।

हमारे पूर्वांचल में साल भर तक बहू से कोई काम नहीं करवाया जाता था । सास , ननद और देवर सभी उसके कमरे में जाकर उसका कुशल क्षेम जानते रहते थे । हँसी ठिठोली देवरों व ननदों की अपनी भाभी से चलती रहती थी ।

सास और ननद कोई न कोई डिश बहू के कमरे में पहुँचाती रहती थीं । "मायके की कभी न याद आए ससुराल में इतना प्यार मिले " की थ्योरी पूरे साल भर तक चलती रहती थी ।

जब बहू को आए साल भर हो जाता था तो उसे रसोई का काम सौंपा जाता था । यह दिन शुभ दिन होता था । इस प्रक्रिया को "रसोई छुआना" कहते थे । इस दिन बहू बड़े मनोयोग से भोजन बनाती थी । भोजन बनाने में सास व ननद भी बाहर से दिशा निर्देश दिया करतीं रहतीं थीं । वे सुनिश्चित करतीं थीं कि भोजन में कहीं नमक कम या ज्यादा न हो जाए ।

भोजन के लिए ससुर व जेठ को बुलाया जाता था । ससुर व जेठ आते , लेकिन उन्हें भोजन परोसा नहीं जाता । सास या ननद कह देतीं कि बहू ने "थरिया छेंक" रखा है । मतलब बहू ने भोजन की थाली रोक रखी है ।

भोजन की थाली पर लगी रोक को हटाने के लिए ससुर व जेठ को बहू को एक निश्चित रकम चुकानी होती थी , तब जाकर उन्हें भोजन मिलता था । कई कई लोग बहू को कोई गहना जैसे अंगूठी , बाला या हार तक भी दिया करते थे । रकम या गहना मिल जाने के बाद बहू थाली पर से रोक हटा लेती थी और ससुर व जेठ को भोजन मिल जाता था ।

कई बहुएँ केवल आश्वासन मिलने पर हीं भोजन पर से अपनी रोक हटा लेती थीं । बाज दफा ऐसे मामलों में कभी कभी ठगहरी भी हो जाती थी । उन्हें वाँछित रकम या गहने कभी भी नहीं मिलते थे ।

ननद का इस थरिया छेंकाई में अहम रोल होता था । वह एक तरह से बहू की प्रवक्ता होती थी । वह अपनी तरफ से बहुत कुछ जोड़ जाड़ भी लेती थी । ससुर व जेठ को सब पता होता था । वे हँसकर रह जाते थे । बहू बेचारी कुछ बोलती नहीं थी । इसलिए बेगानी की शादी मे अब्दुल्ला दीवाना होता रहता था । हो सकता है कि उस नेग में से कुछ अंश चुलबुली ननद का भी होता हो ।

आजकल बहू के आते हीं "रसोई छुआ " दिया जाता है । एक साल का इंतजार नहीं किया जाता । "थरिया छेंकायी " भी केवल एक रस्म भर रह गयी है ।

बहू को आज भी नेग मिलता है । लेकिन जल्दी मिल जाता है । अवधि साल भर की नहीं होती । साल भर के इंतजार के बाद जो रस्म होती उसका मजा हीं कुछ और होता । इंतजार और सब्र का फल बहुत मीठा होता है ।

इस रस्म की हंसी ठिठोली अब कायम नहीं रह गयी है । यही कारण है कि नयी बहू ससुराल में पूरी तरह से रच बस नहीं पाती । हमने आज बहू के "एडजस्टमेंट पीरियड " को काफी छोटा कर दिया है ।

Er S D Ojha.