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विकास दुबे एंकाउंटर की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को पुलिसिया सिस्टम में खराबी नज़र आई।

मान लिया सिस्टम खराब है।

कभी अपने गिरेहबान में झांकने की कोशिश की क्या इन कोर्ट वालों ने???

स्पेशल सीबीआई कोर्ट, मथुरा को भरतपुर के पूर्व राजा किशन सिंह के पुत्र मानसिंह और उसके दो साथियों के एंकाउंटर (11 फरवरी 1985) में फैसला सुनाने में 35 साल, 1700 तारीख, 15 करोड़ रुपये लग गए। सभी पुलिस वाले रिटायर हो चुके हैं अब या तो जेल में सड़ें या कोर्ट कचहरी करते हुए अपनी बची हुई जिंदगी खत्म कर दें।

13 जुलाई 1984 को कानपुर के एक डाकिये के खिलाफ 57 रुपये 60 पैसे गबन करने की एफआईआर दर्ज की गई और निलम्बित कर दिया गया । 29 साल बाद 3 दिसम्बर 2013 को उसे निर्दोष पाया गया - मगर इतने सालों में पैसे की तंगी और 350 पेशियों पर आये खर्च से परिवार दाने दाने को मोहताज हो गया।

23 मई 1987 के चर्चित हाशिमपुरा केस का फैंसला 28 साल बाद मार्च 2015 में आया।

2 जनवरी 1975 के ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का फैसला 40 साल बाद दिसम्बर 2014 में दोषियों को आजीवन कारावास की सजा के रूप में आया ! कितने जिंदा बचे थे अभियुक्तों में ?

बेहमई कांड जनवरी 1981 में हुआ - आज तक केस ट्रायल स्टेज में पड़ा है क्योंकि केस की मूल केस डायरी खो गई है।

चिदम्बरम डेढ़ साल तक एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट, पूरे न्यायिक तंत्र की आंख में धूल झोंककर अग्रिम जमानत लेकर कोर्ट में पेश तक नही हुआ, आखिर उसे अग्रिम जमानत देने वाले भी तो कोई जज ही थे॥

ये कुछ उदाहरण उस सुप्रीम कोर्ट के लिए हैं जो सरकार से पूछ रही है कि विकास दुबे को बेल कैसे मिली - -।

ये कैसे, का सवाल पूछने की इतनी जल्दी क्या थी? जिन जिन जजों ने पुराने केसों में बेल दी थी उनको भी अगली तारीख पर तलब कर लिया होता, आखिर बेल तो सरकार ने नही दी, किसी न किसी जज ने ही दी होगी?

अदालत के अदर्ली, पेशकार से लेकर ऊपर नीचे तक, सब रोज़ बिकते हैं क्या सुप्रीम कोर्ट को नजर नहीं आता??? जिस गीता पर हाथ रखकर अपनी पूरी नौकरी में कितने हजार लोगों से सच बुलवाया जाता है, क्या कोई एक जज उसी गीता की कसम खाकर कह सकता है कि उसकी जानकारी में उसकी नाक के नीचे कभी कोई भ्रष्टाचार नही हुआ?

एसी चैम्बरों में बैठ कर, पत्थरबाजों पर पैलेट गन न चलाने की हिदायत देना बहुत आसान है इन जजों के लिए, जो गर्दन झुका कर ये नहीं देख सकते कि इनकी अदालतों में क्या चल रहा है। जो जबान हिला कर महाराष्ट्र सरकार से ये नहीं पूछ सकते कि वहाँ के जज चश्मे नाक पर पहनते हैं या %$#^ पर कि जब उन्हें हर साल चश्मा खरीदने के लिए पचास हजार रुपए दिये जायेंगे तभी वो पालघर जैसी घटनाओं का स्वतः संज्ञान लेंगे अन्यथा देश में अर्बन नक्सल को बेल मिलती रहेगी।

सुप्रीम कोर्ट महोदय सिर्फ पुलिसिया सिस्टम में नहीं आपके भी पूरे सिस्टम में कहीं गड़बड़ है, जरा गर्दन झुका कर तो देखो और सोचो कि हाशिमपुरा, हैदराबाद और कानपुर जैसे एंकाउंटर करने की जरूरत क्यों पड़ती है???

मेरा उद्देश्य केवल आईना दिखाना है, अगर किसी को उसमे अपनी शक्ल भद्दी दिखाई दे तो ये उसकी शक्ल की कमी है, आईने की नही। आईने की इसमे सिर्फ एक गलती है कि आईना वही दिखाता है जो सामने होता है, फिर भी किसी की भावनाएं ज्यादा ही आहत हो जाये तो वो अपने गिरेबान में झांक ले, उसका दर्द कम हो जाएगा। अगर किसी को अपमानित महसूस हो तो सॉरी, मेरी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाकी सभी के बराबर है।