इस अध्याय में केवल स्थितप्रज्ञ महापुरुष के प्रशिक्षणात्मक पहलू पर बल दिया गया | यह तो गुरुजनों के लिये निर्देश हैं | वे न भी करें तो उन्हें कोई क्षति नहीं और न ऐसा करने में उनका कोई लाभ ही है | किन्तु जिन साधकों को परमगति अभीष्ट है, उनके लिए विशेष कुछ कहा ही नहीं, तो यह कर्मयोग कैसे है ? कर्म का स्वरूप भी स्पष्ट नहीं, जिसे किया जाए; क्योंकि 'यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है', अभी तक उन्होंने इतना ही बताया | यज्ञ तो बताया ही नहीं, कर्म का स्वरूप स्पष्ट कहाँ हुआ ? हाँ, युद्ध का यथार्थ चित्रण गीता में यहीं पाया जाता है |
सम्पूर्ण गीता पर दृष्टिपात करें तो अध्याय दो में कहा कि शरीर नाशवान है अतः युद्ध कर | गीता में युद्ध का यही ठोस कारण बताया गया | आगे ज्ञानयोग के संदर्भ में क्षत्रिय के लिये युद्ध ही कल्याण का एकमात्र साधन बताया और कहा कि यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गई | कौन सी बुद्धि? यही कि हार-जीत दोनों दृष्टियों में लाभ ही है | ऐसा समझकर युद्ध कर | फिर अध्याय चार में कहा कि योग में स्थित रह कर हृदय में स्थित अपने इस संशय को ज्ञान रुपी तलवार द्वारा काट | वह तलवार योग में है | अध्याय पांच से दस तक युद्ध की चर्चा तक नहीं | ग्यारहवें अध्याय में केवल इतना कहा कि ये शत्रु मेरे द्वारा पहले ही मारे गए हैं, तू निमित्त मात्र हो कर खड़ा भर हो जा | यश को प्राप्त कर | ये तुम्हारे बिना भी मारे हुए हैं, प्रेरक करा लेगा | तू इन मुर्दों को ही मार |
अध्याय पन्द्रह में संसार सुविरूढ़ मूल वाला पीपल वृक्ष जैसा कहा गया, जिसे असंगतारूपी शस्त्र द्वारा काटकर उस परमपद को खोजने का निर्देश मिला | आगे के अध्यायों में युद्ध का उल्लेख नहीं है | हाँ, अध्याय सोलह में असुरों का चित्रण अवश्य है, जो नरकगामी हैं | अध्याय तीन में ही युद्ध का विशद चित्रण है | श्लोक ३० से ४३ तक युद्ध का स्वरूप, उसकी अनिवार्यता, युद्ध न करने वालों का विनाश, युद्ध में मारे जाने वाले शत्रुओं के नाम, उन्हें मारने के लिए अपनी शक्ति का आह्वान और निश्चय ही उन्हें काटकर फेंकने पर बल दिया | इस अध्याय में शत्रु और शत्रु का आन्तरिक स्वरूप स्पष्ट है, जिनके विनाश की प्रेरणा दी गई है | अत:--
इस प्रकार श्रीमद्भागवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्म विद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में मेरे गुरुवर प्रदत्त नाम 'शत्रुविनाशप्रेरणा' नामक तीसरा अध्याय पूर्ण होता है ।
हरी ॐ तत्सत् हरि:।
ॐ गुं गुरुवे नम:
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |