क्रमश:--
वस्तुतः वेद अपौरुषेय है; किन्तु बोलने वाले महापुरुष कुछ गिनती के ही थे। उन्हीं की वाणी का संकलन ही 'वेद' कहलाता है। किन्तु जब शास्त्र लेखन प्रारम्भ हुआ तो समकालीन सामाजिक व्यवस्था और उसके नियम भी साथ ही लिखे गए। महापुरुष के नाम पर जनता उनका भी पालन करने लगती है, यद्यपि धर्म से उनका दूर तक भी कोइ सम्बन्ध नहीं रहता है। आधुनिक युग में मंत्रियों के आगे-पीछे घूम कर साधारण नेता भी अधिकारियो से अपना काम करा लेते हैं, जब कि मंत्री येसे नेताओं को जानते भी नहीं। इसी प्रकार समाजिक व्यवस्थाकार महापुरुष की ओट में जीने, खाने की व्यवस्था भी ग्रन्थों में लिपिबद्ध कर देते हैं। उनका सामाजिक उपयोग तत्सामयिक ही होता है। वेदों के संम्बन्ध में भी यही है। वेद के दो भाग हैं - कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड। कर्मकांड समाजशास्त्र है, जैसे- वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद इत्यादि। ज्ञानकाण्ड का मुख्य श्रोत उपनिषद हैं, उनका भी मूल योगेश्वर श्रीकृष्ण की प्रथम वाणी "गीता" है। सारांशत: 'गीता' अपौरुषेय परमात्मा से समुद्भूत उपनिषद्-सुधा का सार-सर्वस्व है।
इसी प्रकार प्रत्येक महापुरुष, जो परमतत्व को प्राप्त कर लेता है, स्वयं मे धर्मग्रन्थ है। उसकी कथानक का संकलन विश्व में कहीं भी हो, शास्त्र कहलाता है; किन्तु कतिपय धर्मावलम्बियों का यह कथन है कि "जितना कुरान में लिखा है, उतना ही सच है। अब कुरान नहीं उतरेगा।", " ईसा मसीह पर विश्वास किये बिना स्वर्ग नही मिल सकता। वह ईश्वर का इकलौता बेटा था।", "अब ऐसा महापुरुष नहीं हो सकता।" - उनकी रूढ़िवादिता है। यदि उसी तत्व को साक्षात कर लिया जाए तो वही बात फिर होगी।
गीता सर्वभौम है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्व के समस्त धर्मग्रंथो में गीता का स्थान अद्वितीय है। यह स्वयं में धर्मशास्त्र ही नही अपितु अन्य धर्मग्रंथो में निहित सत्य का मानदण्ड भी है। गीता वह कसौटी है, जिस पर प्रत्येक धर्मग्रंथो में अनुस्यूत सत्य अनावृत हो उठता है, परस्पर विरोधी कथनों का समाधान निकल आता है। प्रत्येक धर्मग्रंथो में संसार में जीने-खाने की कला और कर्मकाण्डों का बाहुल्य है। जीवन को आकर्षक बनाने के लिए उन्हें करने और न करने के रोचक और भयानक वर्णनों से धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। कर्मकाण्डों की इसी परम्परा को जनता धर्म समझनें लगती है। जीवन निर्वाह की कला के लिए निर्मित पूजा-पद्धतियों में देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन स्वाभाविक है। धर्म के नाम पर समाज में कलह का यही एकमात्र कारण है। 'गीता' इन क्षणिक व्यवस्थाओं से उपर उठ कर आत्मिक पूर्णता में प्रतिष्ठित करनें का क्रियात्मक अनुशीलन है, जिसका एक भी श्लोक भौतिक जीवनयापन के लिए नहीं है। इसका प्रत्येक श्लोक आपसे आन्तरिक युद्ध 'आराधना' की मांग करता है। तथाकथित धर्मग्रंथो की भांति यह आपको नर्क या स्वर्ग के द्वन्द्व में फँसाकर नहीं छोड़ता, बल्कि उस अमरत्व की उपलब्धि कराता है, अमरत्व तक का मार्गदर्शन करता है, जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बन्धन ही नहीं रह जाता।
हरी ॐ तत्सत् हरि:।
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते।