स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥
. ( श्रीमद्भगवद्गीता ४/३ )
हिन्दी अनुवाद :-
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है |
व्याख्या :-
अर्जुन क्षत्रिय श्रेणी का साधक था और राजर्षि की अवस्था वाला था, जहाँ रिद्धियों-सिद्धियों के थपेड़े में साधक नष्ट हो जाता है | इस काल में भी योग लोक-कल्याण की मुद्रा में ही है; किन्तु प्रायः साधक यहाँ पहुंच कर लड़खड़ा जाते हैं | ऐसा अविनाशी एवं रहस्यमय योग श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, क्योंकि नष्ट होने की अवस्था में अर्जुन था ही | क्यों कहा? इसलिए कि तू मेरा भक्त है, अनन्य भाव से मेरे आश्रित है, प्रिय है, सखा है | जिस परमात्मा की हमे चाह है, वह ( सद्गुरु ) आत्मा परमात्मा से अभिन्न हो कर जब निर्देश देने लगे, तभी वास्तविक भजन आरम्भ होता है | यहाँ प्रेरक की अवस्था में सद्गुरु और परमात्मा एक दूसरे के पर्याय हैं | जिस स्तर पर हम खड़े हैं उसी स्तर पर स्वयं प्रभु हृदय में उतर आऐं, रोक-थाम करने लगें, डगमगाने पर सम्भालेंगे, तभी मन वश मे हो पाता हैहै- "तुलसीदास ( मन ) बस होइं तबहीं, जब प्रेरक प्रभु बरजै" ( विनय पत्रिका, ८९ ), जब तक ईष्ट रथी होकर प्रेरक के रूप में खड़े नहीं हो जाते, तब तक सही मात्रा में प्रवेश ही नहीं होता | वह साधक प्रत्याशी अवश्य है, परन्तु भजन उसके पास कहाँ ? श्लोक की शेष व्याख्या अगले सत्र मे मित्रोँ |
हरि ॐ तत्सत हरि: |
ॐ गुं गुरुवे नम: |
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |