पूज्य गुरुपितामह कहा करते थे - "हो! हम कई बार मरते मरते बचे, भगवान ने ही बचा लिया | गुरुम्गुरू ने ऐसे समझाया, यह कहा" गुरुवर ने पूंछा 'क्या भगवान भी बोलते हैं? बातचीत करते हैं?' परमगुरू बोले "आहो! भगवान तो अइसनै बतियावत हैं, धण्टो बतियावत हैं, बतियाते के डोरौ न टूटै पावत है |" गुरुवर को आश्चर्य हुआ, ये तो एकदम नई बात थी | विचार में पड़ गये ठीक से समझ न पाने के कारण पूछना भी चाहते थे लेकिन किन शब्दों मे पूछे कि उनके गुरुवर को बुरा भी न लगे कि कुछ ही देर में उन्होंने आगे कहा - "काहे घबड़ावत हो? तुमहूं से बतियहियें |" अक्षरसह सत्य था उनका वचन और यही तो सख्यभाव है | सखा की भांति वे निराकरण करते रहे, हौसले में वृद्धि करते रहे, तभी इस नष्ट होने वाली विषम परिस्थिति से साधक पार हो पाता है |
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हरिॐ तत्सत हरि:
ॐ गुं गुरुवे नम:
राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |