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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं -

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
. ( श्रीमद्भागवत गीता अ० ४-६ )

हिन्दी अनुवाद -
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ |

व्याख्या-
मै विनाश रहित, पुनः जन्म रहित, और समस्त प्राणियों के स्वर में संचारित होते हुए भी अपनी प्रकृति को आधीन रखके आत्ममाया से प्रकट होता हूँ | एक माया तो अविद्या है जो प्रकृति में ही विश्वास दिलाती है, नीच एवं अधम योनियो का कारण बनती है | दूसरी माया है आत्ममाया, जो आत्मा में प्रवेश दिलाती है, स्वरुप के जन्म का कारण बनती है | इसी को को योगमाया भी कहते हैं | जिससे हम विलग हैं, उस शाश्वत स्वरूप को यह जोड़ती है, मिलन कराती है | उसी आत्मिक प्रक्रिया द्वारा मैं अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को आधीन करके ही प्रकट होता हूँ |

प्रायः लोग कहते हैं कि भगवान का अवतार होगा तो दर्शन कर लेंगे | श्रीकृष्ण कहते हैं ऐसा कुछ नहीं होता कि कोई दूसरा देख सके | स्वरूप का जन्म पिण्ड रूप में नहीं होता | श्रीकृष्ण कहते हैं- योग-साधना द्वारा, आत्ममाया द्वारा त्रिगुणमयी प्रकृति को स्ववश करके मै क्रमशः प्रकट होता हूँ | लेकिन किन परिस्थितियों में? अगले सत्र में मित्रों |

हरि ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तैरी सदा हि जय हो माते |

शुभ हो दिन रात सभी के।