वो अगर उस दिन ना मारे जाते तो आजादी की तस्वीर अलग होती, भगत सिंह को फांसी नही होती, सबसे अधिक "देश सेवक" उनके साथ थे।
[क्यों की आजाद की हत्या के ठीक "पचीस" दिन बाद भगत राजगुरू और सुखदेव को लाहौर में फांसी दी गयी थी।]
आजादी की भनक भारत के उस बड़े घराने को लग चुकी थी एक तरफ जहां राजगुरु भगत और सुखदेव आजादी के लिए फांसी के मुहाने पर थे वहीं तथाकथित सेनानी चाचा अपने रास्ते से उन महापुरुषों को हटा रहे थे जो उनकी कुर्सी का रोड़ा बन सकते थे ।
आजाद उनमे से एक थे।
आप यों समझिए इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) मे चाचा भी रहते थे और आजाद भी बाबा मेरे बताया करते थे की आजाद जिस गली से गुजरते थे वहा उनका स्वागत वन से आए राम की तरह होता था!!! वो इकलौतेके क्रांतिकारी थे जो धोती में खुलेआम तमंचा रखते थे। उनका अगला लक्ष्य अपने उन तमाम मजबूत साथियों को तमंचा मुहैया कराना था ।
आजाद की मज़बूती का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं की उनको मारने के लिए साठ पुलिस वाले गये थे तीन सौ बारह और राइफल (रीपीटर) जैसी बंदूक के साथ जबकी मुखबिर की जानकारी पक्की थी की आजाद अकेले हैं एक पिस्टल और कुल जमा दस बारह कारतूस के साथ।
आजाद ने स्वयं को गोली मारने से पहले आठ पुलिस (अंग्रेजी पुलिस) वालो को हेड सूट किया था।
और फिर खुद को गोली मारी थी।
उनके मरने के बाद पांच मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा फिर कुछ पुलिस वालों ने लाठी से हिला कर उनको देखा, उनकी पीठ पेड़ पर टिकी हुई थी और वो वहीं बैठे थे उनके दोनों हाथ गीली मिट्टी में धंसे हुए थे... मुट्ठी बंद थी...!!
लाठी और डंडो से पीटने के बाद जब पुलिस आस्वस्त हो गयी की अब आजाद नहीं रहे फिर उनका तमंचा जो वहीं जमीन पर रखा था उसे उठा लिया और उनकी मुट्ठी खोली गयी दोनों हाथों में मातृभूमि की "माटी" थी।
आजाद अब सदा के लिए आजाद हो चुका था।
महज चौबीस बरस के उस धाकड़ शरीर के आजाद को "रसूलाबाद" घाट पर जला दिया बिना किसी सूचना के ताकी उस भीड़ से बचा जा सके जो उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित हो सकती थी।
आजादी के उस महानायक को कंधा तक नसीब नही हुआ था।
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गर्व करिए और जब कभी आजाद नाम सुनने को आए तो आँखे बंद कर नमन करिए उन हुतात्मा को की वो हमारे भारत में पैदा हुए...........! और उस दुर्भाग्य पर भी हंसिये की भारत के हर शहर नुक्कड़ पर मोहनदास इंदिरा राजीव और जवाहर नाम की गलियां सड़कें और स्कूल हैं।
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