एक अनोखा संवाद
दिसंबर १९९९ की बात है।मेरी पत्नी की कीमोथेरेपी चल रही थी।तीसरा दौर था। उस कीमो के लिए काफी पैसे चाहिए थे और मेरे पास उस समय थे नहीं घर से मांगना नहीं चाहता था।
कुछ समझ नहीं आया सर्दियों की रात, काफी सर्दी पड़ रही थी। मेरे आस पास कोई ऐसा नजर आ भी नहीं रहा था कि मै किसी से मदद मांग लूं। कड़ाके की ठंड में कंबल में लिपटा हुआ प्रार्थना कर रहा था अपने परम मित्र श्री कृष्ण से कभी गुहार लगाता कभी शिकायत करता।
खीज़ कर मेंने शिकायती स्वर में शिकायत कि
क्या है मुझे इतनी विकट परिस्थिति में डाल दिया और अब कोई रास्ता भी नहीं दिखा रहे
आंखों में आंसू की बूंदे झिलमिलाने लगी, और कुछ देर के बाद मुझे एक स्पष्ट स्वर सुनाई पड़ा
सुबह तक भी नहीं रुक सकते तुम?
रातें में क्या मेरी लॉटरी लगने वाली है एक थकी मुस्कान फैल गई आंखो में और बाहर टेरेस पे बैठे मुझे कुर्सी में ही नींद आ गई पता ही नहीं चला।
अगली सुबह जब मैं काम पे पहुंचा ११ के आसपास मुझे एक परिचित मिलने आए, कुछ देर औपचारिक बात करने के बाद जब वो जाने लगे तो उन्होंने मुझे एक पैकेट पकड़ाया और बोले मै समझ सकता हूं इस समय आपको इसकी बहुत जरूरत है ।
क्या है इसमें
कुछ पैसे हैं चिट की पूरी राशि तुम जब भी कंफरटेबल हो चिट डाल लेना
मेरे कानों में रात के वो शब्द गूंज गए की सुबह तक नहीं रुक सकते क्या?
उन परिचित से मेंने वो पैकेट लिया और नम आंखों से उनका शुक्रिया किया
दरअसल कुछ साल पहले तक उनके पास चिट डाला करता था।मगर पिछले २ साल से तो नहीं डाल रहा था।
उनके जाने के बाद जब मेंने पैकेट खोला उसमे ३ लाख रूपए थे।
आंखे नम, दिल में विचित्र कम्पन मन में परम मित्र के दर्शन
वो दिन आज का दिन कभी शिकायत नहीं की किसी चीज की
वो ख्याली है खयालात समझने वाला
मुझसे बेहतर मेरे हालात समझने वाला