रश्मि जैन
आज का विचार
17/12/2017
(योग्य पुरुषार्थपूर्वक आत्मा में रमण करो)
आचार्यों ने "आत्मा में रमण करो, क्रीड़ा करो, केलि करो" आदि शब्दों का प्रयोग अनेक स्थानों पर किया है। जब भी मैं ऐसे शब्दों को पढ़ती अथवा सुनती थी तो हर बार यह विचार मन को झकझोर जाता था कि आत्मा में रमणता, क्रीड़ा आदि का क्या अर्थ? एक दिन समझ आया कि जिस प्रकार एकमेक होकर, तन्मय होकर, आनन्द पूर्वक, बिना थके हम परपदार्थों को भोगते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भोगना ही आत्मा में रमणता है। आत्मा में केलि करो अर्थात् आत्मा में क्रीड़ा करो अर्थात् जिस प्रकार बच्चा खेल को इतना तल्लीन हो कर खेलता है कि खेलने से उसका मन ही नहीं भरता, थकान ही नहीं होती, बार बार उसका मन खेल में ही रमता है, उसी प्रकार तू भी निज आत्मा में आनन्दमयी क्रीड़ा कर। जिसमें थकान न हो, ऐसे आनन्दमयी कार्य को क्रीड़ा कहते हैं।
आचार्य कहते हैं कि हे भव्य! रागादि विकारों में दुखी होने का तेरा स्वभाव नहीं, अनन्त आनन्दमयी क्रीड़ा का आश्रम है तेरा स्वभाव। आश्रम=आ(चारों तरफ से अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से)+श्रम अर्थात् जिसके द्रव्यक्षेत्रकालभाव चारों ओर अथवा असंख्यात प्रदेशों में श्रम=अनन्त वीर्य, पुरुषार्थ स्फुरायमान हो रहा है, ऐसे अनन्त पुरुषार्थ का आनन्दमयी आश्रम तेरा स्वभाव है। आश्रम का एक अन्य अर्थ भी है....जहाँ आते ही सारा श्रम (थकान) तत्क्षण ही नष्ट हो जाती है। स्वभाव को तेरे पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं क्योंकि स्वभाव सदा निरपेक्ष होता है। वह तो स्वयं अपने षटकारकों से अनन्त समृद्धि व सम्पन्नता से शोभित हो रहा है। यदि स्वभाव को पुरुषार्थ की आवश्यकता होने लगी तो स्वभाव को ध्रुव कैसे कहा जाए? तब तो पर्याय स्वभाव से बलवान हो जाएगी। पर की ओर ढलती पर्याय थकती है और स्वभाव की ओर ढलकर विश्राम पाती है। ऐसे सहज स्वभाव का धारी तू है। ऐसी श्रद्धा लाए तो परिणति स्वभाव की ओर ढले बिना न रहे। इसलिये तू स्वभाव को देखे, ऐसी अपेक्षा स्वभाव को नहीं।
सचमुच मेरे पुरुषार्थ की ज्ञान-दर्शन-सुखमयी अविच्छिन्न धारा चारों ओर से बह रही है। यह धारा अविच्छिन्न अखण्ड क्यों है? थकती क्यों नहीं है? एक पल के लिए भी मेरे पुरुषार्थ की धारा रुकती क्यों नहीं है? जानने में, पुरुषार्थ में, आनन्द में कोई व्यवधान क्यों नहीं आता? क्योंकि मैं ज्ञेयों के सन्मुख होकर नहीं जानता। मैं ज्ञानस्वभाव में रहकर ही जानता हूँ, जानने का पुरुषार्थ (कार्य) मेरे स्वभाव में हो ही रहा है, इसीलिये मेरा वीर्य अविच्छिन्न है, इसीलिए मैं सदा निरखेद, निर्द्वन्द्व, निराकुल रहता हूँ। ऐसा मेरा स्वभाव मुझे प्रकट नहीं करना है, वह तो सदा प्रकट है। बस उसे जानना मात्र है। उपयोग की गर्दन को परज्ञेयों से मोड़ कर ऐसे वर्तते स्वभाव की ओर देखना मात्र है। यहाँ आनन्द की कमी नहीं, बस देखने की कमी है। जहाँ इसे देखा, वहीं आनन्द की स्वाभाविक धारा प्रवाहित होती है। वास्तव में तो यह धारा निरन्तर प्रवाहित हो ही रही है, बस इसका मुख (प्रवाह) बाह्य जगत की ओर होने से, विषयों की आकुलता भी, सहज स्वाभाविक आनन्द के साथ आ रही है, इसीलिये उसे विकारी कहा। जिस प्रकार शिकंजी में नींबू के साथ मिली चीनी की मिठास का स्वाभाविक स्वाद जानने में नहीं आता, नींबू से अलग अकेली चीनी खाए तो उसका वास्तविक स्वाद पता चले। इसी प्रकार विषयों से लक्ष्य हटाकर देखे तो ज्ञानोपयोगमयी आत्मा का आनन्दपूर्ण स्वाद आए।
इसके विपरीत जिसका चित्त क्रोधमानमायालोभ आदि से क्षुब्ध होगा, उसे तीन काल में भी आनन्द का भोग नहीं होगा। उपरोक्त ध्रुव स्वभाव के जानने वाले को रागादि मलिनता की चिन्ता नहीं होती क्योंकि उसे आत्मा के निर्मल स्वभाव एवं रागादि के मलिन स्वभाव दोनों का ही ज्ञान है। जिस प्रकार वस्त्र के क्षणिक मैलेपने के स्वभाव और स्वच्छता के ध्रुव स्वभाव दोनों का ही ज्ञान होने के कारण उसे वस्त्र के मैला होने की चिन्ता नहीं होती। वह जानता है कि वस्त्र मैला नहीं है, मैल बाहर से आया है अतः साबुन आदि के प्रयोग से वह हट जाएगा। इसी सम्यग्ज्ञान के बल पर वह निराकुल रहता है। वस्त्र के मैला होने की चिन्ता उसे होती है जिसे वस्त्र की स्वच्छता के स्वभाव का ज्ञान नहीं है, और वस्त्र के मैलेपने को ही वह उसका स्वभाव जानता मानता है। मैले वस्त्र पर यदि हल्दी आदि का दाग लग जाए तो वह उसे हटाने की चिन्ता भी करेगा और पुरुषार्थ भी करेगा। क्योंकि उस दाग को वह वस्त्र का स्वभाव नहीं मानता, भिन्न जानता मानता है। परन्तु मैले वस्त्र को स्वच्छ करने की उसे न तो चिन्ता होती है, न ही पुरुषार्थ। इसी प्रकार अपना ध्रुव निर्मल स्वभाव न जानने मानने वाला जीव रागादि को ही अपना स्वभाव जानता है अतः उसे दूर करने का उद्यम नहीं करता। जिनवाणी माँ से अपनी शाश्वत निर्मलता को सुनकर वह ज्ञायक को जानकर तुरन्त ही सब विकारों को दूर देखना चाहता है। फलस्वरूप आकुलित होता है क्योंकि स्वभाव को जानने पर तो रागादि विकार अपने से भिन्न ही जानने में आते हैं, फिर उन्हें दूर करने की आकुलता का क्या काम? जैसे हम वस्त्र पहनते हैं, वह मैला भी होता है फिर उसे धोते हैं, फिर पहनते हैं, उसी प्रकार वह ध्रुव स्वभाव को जान कर आनन्दित होता है, फिर रागादि की आकुलता होती है, उसे भी जानकर बार बार ध्रुव स्वभाव का आश्रय करता है और निराकुल रहता है। रागादि के उदय उस जीव की ध्रुवदृष्टि को भी प्रभावित नहीं कर सकते, फिर स्वभाव की तो बात ही क्या?
वह जानबूझकर रागादि भाव भी नहीं करता, और होते हुए रागादि से आकुलित भी नहीं होता क्योंकि वह पर्याय के उत्पाद व्यय स्वभाव के साथ ध्रुव स्वभाव को भी जानता है। ऐसे उत्पादव्ययध्रौव्य स्वभाव को जानने वाला पर्याय की चिन्ता नहीं करता। न ही पर्याय को जानने का खेद करता है, पर्याय को जानने पर स्वच्छन्द भी नहीं होता। उसका मैंपना पर्याय से हटकर ध्रुव स्वभाव में जो आ गया है। ध्यान रहे कि पर्याय का जानना आकुलता का कारण नहीं, पर्याय में मैंपना ही आकुलता का कारण है। ध्रुव को जानने वाला तो पर्याय का विवेकी हो जाता है। पर्याय को देखकर उसे मान अथवा दीनता नहीं होती, उसे तो पर्याय के ज्ञान में लघुता वृद्धिंगत होती है कि मैं प्रभु होकर कहाँ रागादि की मलिनता में पड़ा हूँ? इस प्रकार उसकी परिणति में मलिनता घटती जाती है और प्रभुता, आनन्द बढ़ता जाता है। पुरुषार्थ के नाम पर उसे कर्तृत्व नहीं होता। अरे ध्रुव की दृष्टि वाला एक एक पर्याय की चिन्ता नहीं करता, एक एक ज्ञेय से नहीं डरता। जिस प्रकार करोड़पति एक-एक रुपये की गड्डियों की चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि उसके पास यदि अनादिकाल से रागादि हैं तो उन्हें दूर करने का ध्रुव स्वभाव भी तो है। उसे समस्या का पता है तो ध्रुव स्वभाव का भी पता है। तकलीफ का एकमात्र कारण एकान्त पक्ष है, दूसरा पक्ष भी जाने तो तकलीफ नहीं होगी.. एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक का ही ज्ञान होना तकलीफ का कारण है।
हे मम प्रियात्मन्! जरा विचार तो करो कि निरन्तर विषयों को जानना हो रहा है, कहाँ से आ रहा है इतना ज्ञान? धन कमाने का लक्ष्य होते ही कमाने योग्य पुरुषार्थ स्वयं तेरी परिणति में दौड़ने लगता है, यश कमाने के इच्छुक की परिणति में उस योग्य पुरुषार्थ सहज ही होता है, और वह पुरुषार्थ ज्ञानमयी ही होता है, अर्थात् धन अथवा यश कमाने योग्य उपायों का ज्ञान सहज ही होता है, उसे ही ज्ञानमयी पुरुषार्थ कहा, शेष सब तो जड़ की क्रियाएँ हैं। यदि तू एक बार ऐसे प्रकट आत्मस्वभाव का लक्ष्य करे तो तेरी परिणति आनन्द से ओतप्रोत हुए बिना न रहे। ऐसे ध्रुव स्वभाव को जानना ही सम्यक, योग्य पुरुषार्थ है। इसके अतिरिक्त सब कर्तृत्व है।
अतः हे मम प्रियात्मन्! मन वचन काय से विषयों में जाते अपने उपयोग को समेटकर, अपने ध्रुव निर्मल, स्वच्छ, सुख-आनन्दमयी आत्मस्वभाव में अब रमण करो, केलि करो, क्रीड़ा करो। इसी में विश्राम करो। यही तुम्हारा विश्रान्ति-स्थल है।
"णमो सिद्धाणं"
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