सुमति स्वदेश छोड़कर चली गई,
ब्रिटेन-कूटनीति से छलि गई,
अमीत, मीत; मीत, शत्रु-सा लगा,
अखंड देश खंड-खंड हो गया।
स्वतंत्रता प्रभात क्या यही-यही!
कि रक्त से उषा भिगो रही मही,
कि त्राहि-त्राहि शब्द से गगन जगा,
जगी घृणा ममत्व-प्रेम सो गया।
अजान आज बंधु-बंधु के लिए,
पड़ोस-का, विदेश पर नज़र किए,
रहें न खड्ग-हस्त किस प्रकार हम,
विदेश है हमें चुनौतियां दिए,
दुरंत युद्ध बीज आज बो गया। ..... हरिवंशराय बच्चन
भारत विभाजन के दुखान्त नाटक के तीन प्रमुख पात्र थे; अंग्रेज, मुस्लिम लीग और इन्डियन नेशनल कांग्रेस। अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन तीन शक्तियों ने क्या-क्या रणनीति अपनायी? इस त्रिकोणीय संघर्ष में कौन जीता और कौन हारा? निरपेक्ष भाव से यदि सब पहलुओं पर विचार किया जाये तो राष्ट्र के लम्बे और उतार-चढाव वाले इतिहास के सर्वाधिक निर्णायक कालखण्ड का सही और स्पष्ट चित्र उभरकर हमारे समक्ष आ जायेगा।
पहले अंग्रेजों को लें तो प्रारम्भ से भारत की मूल शिक्षा उनके सामने थी। हिन्दू 800 वर्षों के अनवरत संघर्ष के बाद विशाल मुस्लिम आधिपत्य उखाड़ फेंकने में सफल हो गए थे। अंग्रेजों के लिए एक ही मार्ग हो सकता था कि हथियारों का सहारा लेने के स्थान पर हिन्दू शक्तियों के आपसी झगङो का लाभ उठायें। जहाँ 1857 में हिन्दू और मुस्लिमों ने मिलकर विद्रोह किया था वहां भर्ती बंद कर दी गयी और हिन्दुओं में योद्धा और अयोद्धा जैसे दो वर्ग बना दिए गए।
इस सम्बन्ध में 'इंडियन नेशनल कॉंग्रेस के प्रस्तावों पर ध्यान देना आवश्यक है जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1942 के इलाहाबाद के अधिवेशन में उत्तर प्रदेश के पण्डित जगत नारायण जी द्वारा प्रस्तुत 'अखण्ड हिंदुस्तान' का प्रस्ताव स्वीकार किया गया। परन्तु जब नए वायसराय लॉर्ड माउन्टबेटन ने 3 जून 1947 को सत्ता-हस्तानांतरण की योजना घोषित की तो लोग सन्न रह गए क्यों कि उस योजना में भारत विभाजन और पाकिस्तान के गठन की व्यवस्था थी। 15 जून को रही-सही आशा भी समाप्त हो गयी जब अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने विभाजन-योजना अनुमोदन पर अपनी मुहर लगा दी।
जो कुछ हुआ, वह राष्ट्र के साथ निरा विश्वासघात था। वह असंख्य सेनानियों और हुतात्माओं के स्वप्नों के साथ निरा विश्वासघात था जो स्वाधीनता-संग्राम में अखण्ड भारत के स्वप्न को लेकर कूदे थे। उन हुतात्माओं का स्वप्न ही मिट्टी में नहीं मिला वरन् उससे भी कहीं उच्च भाव को विभाजन ने ग्रस लिया।
अहा! कैसा पवित्र भाव था वह, एक स्थायी भाव अन्तरात्मा की गहन कंदराओं में गूँजता हुआ, राष्ट्र के पोर-पोर में समाया हुआ। न जाने कितने ऋषि-मुनियों ने, कवियों ने, द्रष्टाओं ने वैदिक काल से लेकर आज तक राष्ट्र के मानस-पटल पर दिव्य भारत माता के इस अखंड और अविभक्त रूप को प्रतिष्ठित किया। उनकी दृष्टि में भारत मात्र मिट्टी का कोई लौंदा नहीं था; वह निश्चय ही मातृभूमि थी, पुण्यभूमि थी, धर्मभूमि थी, देव-भूमि थी, कर्मभूमि थी; और इन सबके उदात् स्वरूप का प्रतीक थी- एक विराट् भारत माता। बंकिमचंद्र जी की दृष्टि में उसका त्रिविध स्वरूप था सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का। रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी की कल्पना में वह भुवनमनमोहनी थी। स्वामी विवेकानंद जी की दृष्टि में वह 33 करोड़ देवी-देवताओं की माँ थी। गुरू गोलवरकर जी की दृष्टि में वह ममतामयी माता, रक्षक पिता और अध्यात्मिक गुरू की त्रिवेणी थी। भारत की अखंडता उसकी प्रकृति के इतनी अनुकूल है, उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसे उसके राष्ट्रीय आत्मा से विलग नहीं किया जा सकता और राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसे कदापि दाँव पर नहीं लगाया जा सकता।