Sambhav Jain's Album: Wall Photos

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"आशा और उद्योग"

हा! हा! मुझसे कहो न क्यों तुम, आशा कभी न होगी पूर्ण।
प्रतिफल इसका नहीं मिलेगा, बैरी मान न होता चूर्ण।।

वृथा मुझे भय मत दिखलाओ, आशा से मत करो निराश।
कुछ भी बल हैं युगल भुजों में, तो बैरी होवेगा नाश।।

कर्मों के फल के मिलने में यद्यपि हो जाती हैं देर।
तो भी उस जगदीश्वर के घर, होता नहीं कभी अंधेर।।

करने दो प्रयत्न बस मुझको, देने दो जीवन का दान।
निजर् कर्त्तव्य पूर्ण कर लूँ मैं, फल का मुझे नहीं कुछ ध्यान।।

यद्यपि मैं दुर्बल शरीर हूँ, जीवन भी मेरा नि:सार।
प्राणदान देने का तो भी, मुझको हैं अवश्य अधिकार।।

जब तक मेरे इस शरीर में, कुछ भी शेष रहेंगे प्राण।
तब तक कर प्रयत्न मिटाउगाँ, अत्याचारी का अभिमान।।

धर्म न्याय का पक्ष ग्रहण कर, कभी न दूँगा पीछे पैर।
वीर जनों की रीति यही हैं, नहीं प्रतिज्ञा लेते फेर।।

देश दु:ख अपमान जाति का बदला मैं अवश्य लूँगा।
अन्यायी के घोर पाप का, दण्ड उसे अवश्य दूँगा।।

यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी।
पर उद्योग नहीं छोडूँग़ा जगदीश्वर हैं सहकारी।।

आशा! आशा! मुझको केवल तेरा रहा सहारा आज।
बल प्रदान तू मुझको करना रख लेना अब मेरी लाज।।....रामचंद्र शुक्ल जी

प्रार्थना को सदैव निःस्वार्थ होना चाहिए जिसमें व्यक्तिगत की कुछ भी माँग न हो; न ऐहिक समृद्धि की, न परलोक की। यदि कुछ गुण आदि माँगे भी तो वह अपनी किसी कामना हेतु नहीं अपितु ईश्वरीय कार्य को करने योग्य बन सकें इस हेतु से। अतः निःस्वार्थ भाव यह हमारी प्रार्थना का वैशिष्ट्य है। दूसरा यह कि प्रार्थना वैयक्तिक भी हो और सामूहिक भी। इसीलिए हमारी प्रार्थना में अहम् भी है और वयम भी है। प्रार्थना का प्रथम श्लोक व्यक्तिगत है इसलिए अहम् का उच्चारण है और बाद के श्लोकों में वयम अर्थात हम का उच्चारण है। इस प्रकार हमको दिखाई देता कि यह जो मातृभूमि के प्रति भक्ति और हम उसके पुत्र का भाव अनादि काल से अब प्रवाहमान है, यही सारी चीजों का आदि स्रोत है। इस कारण से अपनी प्रथम पंक्ति में "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" कहा।

हमारी मातृभूमि भी अति प्राचीन है; उसकी दीर्घ यात्रा में जो भी विकसित हुआ है उसकी अभिव्यक्ति के लिए हमने कुछ विशेषणों का उपयोग किया है। इसलिए हम कहते हैं "त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम।" हिन्दू शब्द नया होगा लेकिन इसके भाव को वहन करने वाला जो समाज है उस समाज का प्रवाह अखण्ड है।

व्यक्ति के विकास के लिए यह आवश्यक भी है कि वह अपनी श्रद्धा पर दृढ़ता के साथ- साथ अपने राष्ट्र के स्वरुप की स्पष्ट संकल्पना अपने अन्तर्मन में रखते हुए अपनी वाणी उतनी ही स्पष्टता से निर्भयता पूर्वक उसको मुखरित करने का साहस रखे। मन में अपनी इस पवित्र अखण्ड मातृभूमि की भक्ति तथा उसके प्रत्येक पुत्र के प्रति आत्मीयता व संवेदना भरी है, अपने पराक्रमी व त्यागी पूर्वजों का गौरव जिनके अंतःकरण का आलम्बन है व इस राष्ट्र को परम वैभव सम्पन्न बनाने के लिए सर्वस्व त्याग ही जिनकी सामूहिकता की व कर्म की प्रेरणा है, ऐसे कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। समाज में सेवा कार्य से पूर्व के वातावरण से ही समाजमन के भेद, स्वार्थ, आलस्य, आत्महीनता आदि त्रुटियाँ दूर होकर उसके संगठितता व गुणवत्ता से परिपूर्ण आचरण का चित्र खड़ा होगा। समाज को समरस व संगठित बनाने का यह एकमेवाद्वितीय उपाय है। उसमें हम सभी की सहभागिता आवश्यक है।

स्वआधारित सही नीति, उत्तम क्रियान्वयन, सज्जनशक्ति का सहयोग व तदनुसार समाज का संगठित, उद्यम व एकरस आचरण इस चतुर्विध संयोग से परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत के पूर्ण स्वरुप का प्रकटन हम आने वाले कुछ ही दशकों में कर सकेंगे ऐसी अनुकूलता सर्वदूर विद्यमान होती है और ऐसे अवसर हमारा स्वप्न एक सामर्थ्यशाली, स्वावलम्बी, समृद्ध सुसंस्कृत संगठित भारत जो विश्व का मार्गदर्शन करने में सक्षम हो उसके निर्माण का है। ऐसे भारत के निर्माण का स्वप्न लेकर चलने वाले हम ध्येयपथ के पथिकों इस राह पर चलने की भगवान प्रेरणा दें।