जय माँ
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वेद,शास्त्र, पुराण, इतिहास, आदि पुस्तके तो सभी पढ़ लेते है किन्तु उनका वास्तविक अर्थ व तात्पर्य तथा उनमें छिपे गूढ़ रहस्यों को तो कोई ज्ञानी गुरु ही समझा सकता है। यदि पुस्तके पढ़कर ही कोई ज्ञानी बन जाता तो इस संसार मे सभी प्रकार की पुस्तकें विद्यमान है उन्हें पढ़कर सभी ज्ञानी बन जाते किन्तु ऐसा हुआ नही। पुस्तको में तो कई प्रकार की विद्याएं है, कई प्रकार के मन्त्र है जैसे भूत-प्रेतों के मंत्र है, सिद्धियों के मंत्र है, कामनापूर्ति के मंत्र है, मनःसिद्धि के मंत्र है, मारण, मोहन, उच्चाटन के मंत्र है, कई प्रकार के यंत्र है जिनकी लोग पूजा करते है, प्रेतों को वश में करने के मंत्र है, मूठ, टोना, टोटका के मंत्र है, तांत्रिक विद्या की अलग अलग विधियाँ है। इनके साथ ही शैव, शाक्त, आगम, और अन्य कई प्रकार के मतमतान्तर भी है, जिन्होंने विभिन्न विधियों पर प्रयोग किये है। योग साधना में भी हठयोग, राजयोग,कुंडलिनीयोग, प्राणायाम, आदि कई प्रकार की विधियाँ भारत मे खोजी गई है व उन पर सफल प्रयोग भी किये है, किन्तु ये सब विद्याएं गुरु से सीखनी पड़ती है जो इनका पूर्ण ज्ञाता हो। मात्र पुस्तके पढ़कर इन पर प्रयोग नही किया जा सकता। फिर ये सभी विद्याएं आत्मज्ञान की हेतु नही है। इनसे न तो ईश्वर प्राप्ति होती है न शान्ति ही मिलती है। शान्ति तो एकमात्र ईश्वर प्राप्ति से ही मिलती है इसलिए उसी के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो भ्रान्तचित्त वाले बिना गुरु के इन विद्याओ को मात्र पुस्तके पढ़कर प्रयोग करते है वे पथभ्रष्ट ही होते है व कई तो पागल होकर घूमते ही रहते है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए तभी उसके सदपरिणाम आते है। इसी प्रकार जप,तप, तीर्थ, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन आवश्यक है कि इनकी विधि क्या है ? अविधिपूर्वक किये गए ये सभी कर्म व्यर्थ ही सिद्ध होते है जिनका कोई उचित फल नही मिलता। पाखण्ड पूर्वक व स्वयं की अहंकार तृप्ति के लिए किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य की अधोगति का कारण बन जाते है। कई अज्ञानीजन गुरु के महत्व को न समझ कर इसी प्रकार के कर्म करते रहते है जिनके लिए भगवान् शिव ने स्पष्ट निर्देश दिए है कि बिना गुरु के किसी का कोई कार्य सफल नही हो सकता। इसलिए गुरु तत्व को जानना अति आवश्यक है। हठयोग, प्राणायाम, आदि क्रियाएं बिना गुरु के करने पर शरीर रोगग्रस्त हो सकता है। कई क्रियाएं ऐसी है जिनसे सिद्धियाँ प्राप्त होती है जिनका दुरुपयोग करने पर मनुष्य को उन कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है तथा ये सिद्धियाँ आत्मज्ञान में भी बाधक बन जाती है। दक्ष गुरु से इन विद्याओं को सीखने पर सर्वप्रथम वह उसकी पात्रता की परीक्षा करता है।यम नियम का पालन करा कर उसकी चित्त शुद्धि कराता है फिर वह उसकी कठिन परीक्षा लेकर गुरु विद्या का उपदेश देता है जिससे उसके सदपरिणाम ही सामने आते है। गुरु की अनिवार्यता इसलिए भी है कि वह शिष्य को पूर्ण नियम संयम व मर्यादा पालन का उपदेश देता है फिर गूढ़ रहस्यमय ज्ञान देता है। कर्म चाहे कैसा भी हो, सांसारिक कर्म हो अथवा अध्यात्म ज्ञान गुरु की अनिवार्यता सर्वसिद्ध है। बिना गुरु के जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है अथवा कर्म किया जाता है उसके कभी भी अच्छे परिणाम नही आ सकते। वह भटकता ही रहता है। उसे उचित दिशा निर्देश नही मिल सकता। बिना गुरु के जो स्वयं अपनी इच्छानुसार चलता है, जो किसी नियम, संयम, मर्यादा को स्वीकार नही करता उसे "निगुरा" कहा जाता है जो जीवन में कभी सफल नही हो सकता। जीवन मे वैसे माता पिता से लेकर शिक्षक तथा हर कार्य को सीखने के लिए गुरु की अनिवार्यता है किन्तु अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो गुरु की अनिवार्यता है ही। इसके बिना अध्यात्म ज्ञान हो ही नही सकता, यह निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए।
जगदम्ब भवानी