जय माँ
*************साधक का सत्य************
मनुष्य वास्तव में साधक है कारण कि चौरासी ओमे भटकते हुए जीव को भगवान यह मनुष्य शरीर केवल अपना कल्याण करने के लिये प्रदान करते है इसलिये किसीभी मनुष्य को अपने कल्याण से निराश नही होना चाहिये मनुष्य मात्र को परमात्मप्राप्तिका जन्मसिध्द अधिकार है साधक होने के नाते मनुष्यमात्र अपने साध्य को प्राप्त करने मे स्वतन्त्र समर्थ योग्य और अधिकारी है सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को पहचानकर दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि मै संसारी नही हुँ प्रत्युत साधक हुँ मै स्त्री हूँ मैंपुरूष हुँ मैं ब्राह्मण हूँ मै क्षत्री हूँ मैं वैश्य हूँ मैं शुद्र हूँ मैं ब्रह्मचारी हूँ मैं गृहस्थ हूँ मैं वानप्रस्थ हूँ मैं संन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ केवल संसारिक व्यवहार (मर्यादा) के लिये तो ठीक रहता है पर परमात्माप्राप्ति में ये बाधक है ये मान्यताएँ शरीर को लेकर है परमात्माप्राप्ति शरीर को नही होती प्रत्युत स्वमं साधक को होती है साधक स्वमं अशरीरी ही होता है