श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि
परेषां न समाचरेत् ।।
(विष्णुधर्मोत्तर.3/253/44)
सुनें धर्म का सर्वस्व और सुनकर इसके अनुसार आचरण करें,जो अपने को प्रतिकूल जान पडे़,जिस बात से अपने को पीड़ा पहुंचे,उसको दूसरे के प्रति न करें।
न तत् परस्य संदध्यात्
प्रतिकूलं यदात्मन: ।
एष संक्षेपतो धर्म:
कामादन्य: प्रवर्तते ।।
(महा.शा.पर्व59/22)
दूसरों के प्रति हमको वह काम नहीं करना चाहिए, जिसको यदि दूसरा हमारे प्रति करे तो हमको बुरा मालूम हो या दु:ख हो। संक्षेप में यही धर्म है,इसके अतिरिक्त दूसरे सब धर्म किसी बात की कामना से किये जाते हैं।