योगयुक्तो विशुद्धात्मा,
विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा,
कुर्वन्नपि न लिप्यते।।7
जिस मनुष्य का मन अपने वश में है जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को उनके विषयो भोगो से आशक्त किये विना अपनी इन्द्रयों को जीत लिया है जो विशुद्ध अंतःकरण वाला है जो सम्पूर्ण प्राणियों में साक्षात परमात्मा के और परमात्मा में समस्त प्रकृति और प्राणियों को देखता हुआ सबमे समभाव रखते हुए सामाजिक मान्यताओं और धर्मशास्त्र में बताए अनुसार कर्तव्य कर्मो का निर्वाह करता हो ऐसा कर्मयोगी मनुष्य समस्त कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नही होता है तथा समस्त कर्म बंधनो से मुक्त रहता है।