असंतोषी को सुख कहाँ ? असंतोषी का तेज, विद्या, तपस्या, यश और विवेक क्षीण हो जाते हैं
श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कन्ध, अध्याय 15
नारदजी कहते हैं युधिष्ठिर! जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले सन्तोषी पुरुष को मिलता है, वह कामना और लोभ के कारन धन के लिये इधर-उधर हाय-हाय कर दौड़ने वाले मनुष्य को कैसे मिल सकता है। जैसे पैरों में जूता पहनकर चलने वाले को कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख ही सुख है, दुःख है ही नहीं।
क्यों नहीं राजन ! सन्तुष्ट मनुष्य केवल जल मात्र से रहकर अपने जीवन का निर्वाह कर लेता है। जबकि रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पड़कर यह बेचारा घर की चौकसी करने वाले कुत्ते के समान हो जाता है। जो ब्राम्हण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियों की लोलुपता के कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है। भूख और प्यास मिट जाने पर खाने-पीने की कामना का अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु लोभ का अन्त नहीं होता यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को भी जीत ले और भोग ले ।
सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत् सुखम् ।
कुतस् तत् काम लोभेन धावतोऽर्थेहया दिशः ॥ १६ ॥
सदा सन्तुष्ट मनसः सर्वाः शिवमया दिशः ।
शर्करा कण्टकादिभ्यो यथोपानत् पदः शिवम् ॥ १७ ॥
सन्तुष्टः केन वा राजन् न वर्तेतापि वारिणा ।
औपस्थ्य जैह्व्य कार्पण्याद् गृह पालायते जनः ॥ १८ ॥
असन्तुष्टस्य विप्रस्य तेजो विद्या तपो यशः ।
स्रवन्ति इन्द्रिय लौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते ॥ १९ ॥
कामस्यान्तं हि क्षुत् तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत् फलोदयात् ।
जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः ॥ २० ॥