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नवार्ण मंत्र :

आदिशक्ति की लीलाकथा बीजरूप में नवार्ण मंत्र में समाई । इसे यों भी कह सकते हैं कि नावार्ण मंत्र का विकास- विस्तार ही श्री दुर्गासप्तशती केत्रिविध चरित्रों एवं सात सौ मंत्रों के रूप में हुआ है। ऐं ही क्लीं चामुण्डायै विच्चे- इन नौ मंत्राक्षरों वाले इस नवार्ण महामंत्र का परिचय संभवत: अनेकों ने अनेक तरह से पाया होगा, परंतु इसके मर्म की अनुभूति विरलों ने की होगी। मंत्रवेता इसमें सभी देवी-देवताओं के विविध मंत्रों- महामंत्रों का सार अनुभव करते हैं। इसकी साधना से प्रकृति एवं सृष्टि के दुर्लभतम रहस्य खोजे,जाने और पाए जा सकते हैं। इस महामंत्र में गुंथे ऐं हीं क्लीं मंत्र बीजों के अलावा इसके मंत्राक्षरों का प्रत्येक अक्षर बीजमंत्र के ही समतुल्य साधक के अस्तित्व में आध्यात्मिक स्फोट एवं अलौकिक शक्तिधाराओं के प्रस्फुटन की क्षमता रखता है।

कवच, अर्गला, कीलक एवं प्राधानिक रहस्य,वैकृतिक रहस्य, मूर्ति रहस्य- ये सभी छी अंग श्री दुर्गा सप्तशती के साथ अनिवार्य व अभिन्न रूप से जुड़े हैं। इसी क्रम में नवार्ण मंत्र का विशेष स्थान है। सप्तशती के पाठ से पूर्व एवं पाठ के पश्चात शक्तिसाधक नवार्ण जप को आवश्यक मानते हैं। शास्त्रकथन भी है- आद्याान्तौ नवार्ण मन्त्रम्ï जपेत्ï। अर्थात पाठ के आदि व अंत में नवार्ण मंत्र का जप करना चाहिए। क्योंकि नवार्ण मंत्र से पुटित करने पर पाठ अति प्रभावशाली होजाता है। इसकी अनुभूति साधक अपने साधनाक्रम में पा सकते है। वैसे जहां तक नवार्ण मंत्र के बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों की रहस्यात्मकता की बात है तो इसके अर्थ बडे व्यापक है। ऐं हीं,क्लीं के रूप में ये तीनों वाक् बीज, मायाबीज एवं कामबीज प्रकृति की त्रिगुणधारा के प्रतीक हैं,जिन्हें महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में चित्रित किया गया है। चामुण्डायै विच्चै मंत्राक्षरों में त्रिगुणात्मिका महाशक्ति भगवती केप्रति भावक्षरी शरणागति का भाव है। हालांकि कथाक्रम में भगवती महाकाली स्वरूप पहले व्यक्त हुआ है, जिसमें क्लीं बीज की मंत्र सामर्थ का विस्तार है। इसके पश्चात मध्यमचरित्र में माता महालक्ष्मी की मांत्रिक महिमा हीं बीज के विस्तार क्रम में प्रकट हुई है। अंत में ऐ बीज की सामथ्र्य माता सरस्वती की मंत्र महिम के रूप में प्रकट हुई है।

चामुण्डायै विच्चे-इन मंत्राक्षरों में भी कई प्रकट एवं गोपनीय शक्तियां समाई हैं। चामुण्डायै पद का एक अर्थ अज्ञान की सेना का नाश करने वाली महाशक्ति से भी है। सप्तशती के कथाक्रम के अनुसार सप्तम् अध्याय में उल्लेख है कि भगवती पार्वती के ललाट से उपजी महाशक्ति ने शुंभ- निशुंभ के सेनानायकों चंड - मुंड का वध किया। वध के पश्चात जब उन्होंने इन बलि- पशुओं को भगवती को अर्पित किया तब वे विहंस कर बोलीं-
यसमाच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता। चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि।।
तुम चंड-मुंड को लेकर हमारे पास आई हो,इसलिए लोक में तुम चामुंडा नाम की देवी होकर विख्यात होगी।
विज्ञजनों के अनुसार यह चामुण्डायै पद उसी महाशक्ति का द्योतक है। यों तो इसमें चार ही अक्षर गिने जाते है। किंतु इसमें पांच व्यंजन और चार स्वर है। इस प्रकार इनकी वर्ण संख्या ९ ही है। इन वर्णों अद्भुत प्रभाव है। इसलिए ये मंत्र के मध्य में रखे गए है। इस पद के बाद आया विच्चे पद भगवती की शरणागति का द्योतक है। मांत्रिक दृष्टि से इसका महत्व भी कम नहीं है।
कुछ सिद्घ परातंत्र योगियों के अनुसार श्री दुर्गाा सप्तशती के चतुर्थ अध्याय के २५ वें श्लोक में देवी प्रार्थना के मंत्र को भी नवार्ण माना गया है। इसमें नौ बार न वर्ण का प्रयोग हुआ है। असंदिग्ध रूप से इस मंत्र की महत्ता व अर्थवत्ता कम नही है। शक्तिसाधकों के लिए इसके गोपनीय अर्थ कोयहां व्यक्त किया जा रहा है। जिससे इसके अद्ïभुत प्रभाव को आंका जा सकता है।

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि: स्वनेन च।।
इसमें ‘न अक्षर नौ बार प्रयोग में आया हैं। इसका अर्थगांभीर्य भी अद्भुत हैं। इसमें प्रार्थना की गई है- ‘हे देवि अपने खड्ग से मेरी दैहिक, दैविक तथा भौतिक कष्टो को नष्ट करे दों। जाग्रत, स्वप्न तथा सुपुष्ति की व्याधियों को दूर कर दो। मैं त्रिदेह,स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीर का घंटा अर्थात नाद स्पंद या प्रणव द्वारा अतिक्रमण कर सकूं कारण एवं महाकारण शरीर में महिषासुर रूपी अहंकार का षट्चक्र भेदन द्वारा शमन कर सहस्रार याब्रह्मïरंध्र में प्रवेश कर क्रमश: ऊर्ध्व गति प्राप्त कर ज्ञान राज्य में प्रवेश पा सकूं। इन थोड़े शब्दों में इसके दिव्यार्थ के संकेत पाए जा सकते हैं।

दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। शारदीय नवरात्रि में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है।

दुर्गा दुखों का नाश करने वाली देवी है। इसलिए नवरात्रि में जब उनकी पूजा आस्था, श्रद्धा से की जाती है तो उनकी नवों शक्तियां जागृत होकर नौग्रहों को नियंत्रित कर देती हैं। फलस्वरूप प्राणियों का कोई अनिष्ट नहीं हो पाता।

दुर्गा की इन नौ शक्तियों को जागृत करने के लिए दुर्गा के 'नवार्ण मंत्र' का जाप किया जाता है। नव का अर्थ नौ तथा अर्ण का अर्थ अक्षर होता है। अतः नवार्ण नौ अक्षरों वाला मंत्र है, नवार्ण मंत्र 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' है।

नौ अक्षरों वाले इस नवार्ण मंत्र के एक-एक अक्षर का संबंध दुर्गा की एक-एक शक्ति से है और उस एक-एक शक्ति का संबंध एक-एक ग्रह से है।

* नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है,जो सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र' को की जाती है।

* दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रितकरता है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है।

* तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है।

इन अक्षरों से संबंधित दुर्गा की शक्तियां क्रमशः चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायिनी,कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री हैं, जिनकीआराधना क्रमश : तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे,सातवें, आठवें तथा नौवें नवरात्रि को की जाती है।

इस नवार्ण मंत्र के तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं तथा इसकी तीन देवियां महाकाली,महालक्ष्मी तथा महासरस्वती हैं, दुर्गा की यह नवोंशक्तियां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति में भी सहायक होती हैं।

इस मंत्र के पहले ॐ अक्षर जोड़कर इसे दशाक्षरमंत्र का रूप दुर्गा सप्तशती में दे दिया गया है,लेकिन इस एक अक्षर के जुड़ने से मंत्र के प्रभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। वह नवार्ण मंत्र की तरह ही फलदायक होता है। अतः कोई चाहे, तो दशाक्षर मंत्र का जाप भी निष्ठा और श्रद्धा से कर सकता है।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयतीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्यां परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता।।
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्।। (श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्)

अर्थात्-सब मन्त्रों में 'मातृका' (मूलाक्षर) रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ) रूप से रहने वाली, ज्ञानों में चिन्मयातीता, शून्यों मेंशून्यसाक्षिणी तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हैं, वे ही दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हैं। उन दुर्विज्ञेय (जिसको जानना कठिन हो), दुराचार का नाश करने वाली और संसार-सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।

मन्त्र शक्ति

अनादिकाल से संसार-सागर में पड़े हुए जीव चाहते हैं कि उन्हें कभी क्लेश न हो और संसार-चक्र से मुक्ति मिले। क्लेशनाश व बंधन से मुक्ति के लिए मनुष्य अपने स्तर पर अनेक प्रयास भी करते हैं, परन्तु मनुष्य की शक्ति सीमित होने केकारण वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाते हैं। यदि संसार के नायक परमात्मा से सम्पर्क हो जाए तो हमारी शक्ति पूर्ण हो जाएगी। मन्त्रों की साधना से साधक का आराध्य से साक्षात्कार हो जाता है,जिससे देवता साधक पर प्रसन्न होकरक्लेशनिवारण और मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं व सांसारिक सुखों और पुरुषार्थ को प्रदान करते हैं। इसी को 'मन्त्रसिद्धि' कहते हैं।

ऋग्वेद, (१०।१२५।३) में आदिशक्ति का कथन है-'मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड की ईश्वरी हूँ, उपासकगण को धन आदि इष्टफल देती हूँ। मैं सर्वदा सबको ईक्षण (देखती) करती हूँ, उपास्य देवताओं में मैं ही प्रधान हूँ, मैं ही सर्वत्र सब जीवदेह में विराजमान हूँ, अनन्त ब्रह्माण्डवासी देवतागण जहां कहीं रहकर जो कुछ करते हैं, वे सब मेरी ही आराधना करते हैं।'

'कलौ चण्डीविनायकौ' के अनुसार कलियुग में देवी दुर्गा की आराधना तत्काल फल देने वाली बताई गयी है। भगवती दुर्गा की यह उपासना उनके मूलमन्त्र (नवार्ण मन्त्र) के जप और देवी की वांग्मयी मूर्ति (श्रीदुर्गासप्तशती) के पाठ-हवन आदि करने पर शीघ्र ही सिद्धिप्रद होती है।

श्रीदुर्गा का नवार्ण/नवाक्षर मन्त्र

देवी दुर्गा मूलप्रकृतिरूपिणी, सभी प्राणियों की जननी, मनुष्यों की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी व वैष्णवों व शैवों की उपास्या हैं। वे घोर संकट से रक्षा करती हैं, अत: जगत में 'दुर्गा' नाम से जानी जाती हैं। आदिशक्ति दुर्गा का मूल मन्त्र नवार्ण मन्त्र है तथा बीज मन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है। नौ वर्णों से बना होने के कारण इसे 'नवाक्षर या नवार्ण मन्त्र' कहते हैं।

इसका स्वरूप है-'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।'

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र

मां दुर्गा के तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दुर्गा का महाकाली रूप है। मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी तथा उत्तर चरित्र में वह महासरस्वती हैं। इन तीन चरित्रों से बीज वर्णों को चुनकर नवार्ण मन्त्र का निर्माण हुआ है। नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र हैं-

'ऐं'-यह सरस्वती बीज है। 'ऐ' का अर्थ सरस्वती है और 'बिन्दु' का अर्थ है दु:खनाशक। अर्थात् सरस्वती हमारे दु:ख को दूर करें।

'ह्रीं'-भुवनेश्वरी बीज है और महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है।

'क्लीं'-यह कृष्णबीज, कालीबीज एवं कामबीज माना गया है।

नवार्ण मन्त्र का भावार्थ

'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'

सरल शब्दों में-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन रूपों मेंसच्चिदानन्दमयी आदिशक्ति योगमाया को हम अविद्या (मन की चंचलता और विक्षेप) दूरकर प्राप्त करें।

मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता, शक्तियां एवं विनियोग

ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस मन्त्र के ऋषि कहे गए हैं। गायत्री, उष्णिक और अनुष्टुप्-ये तीनों इस मन्त्र के छन्द हैं। महाकाली, महालक्ष्मी औरमहासरस्वती-इस मन्त्र की देवता हैं। रक्तदन्तिका,दुर्गा तथा भ्रामरी-इस मन्त्र के बीज हैं। नन्दा,शाकम्भरी और भीमा-ये इस मन्त्र की शक्तियां कही गयी हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस मन्त्र का विनियोग किया जाता है।

नवार्ण मन्त्र के जप का फल

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्।। (श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्)

अर्थात्-महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान करुणा की मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।

यह मन्त्र मनुष्य के लिए कल्पवृक्ष के समान है। नवार्णमन्त्र ▪️उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देने वाला है। दुर्गा के तीन चरित्रों में▪️महाकाली की आराधना से माया-मोह एवं वितृष्णा का नाश होता है।

महालक्ष्मी सभी प्रकार के वैभवों से परिपूर्ण कर बुराई से लड़ने की शक्ति देती हैं तथा महासरस्वती किसी भी संकट से जूझकर पार उतरने वाली बुद्धि और विद्या प्रदान करती हैं।

नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की सभी शक्तियां समायी हुई है, जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है। नवार्ण मन्त्र के जप और मां दुर्गा की आराधना से सभी अनिष्ट ग्रह शान्त हो जाते हैं और मनुष्यों की सभी दारुण बाधाएं भी शान्त हो जाती हैं।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा।। (श्रीदुर्गासप्तशती, १३।४-५)

महर्षि मेधा राजा सुरथ से कहते हैं-'आप उन्हीं भगवती की शरण ग्रहण कीजिए। वे आराधना से प्रसन्न होकर मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं।' ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजासुरथ ने देवी की आराधना से अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया और वैराग्यवान समाधि वैश्य को देवी ने मोक्ष प्रदान किया।

श्रीदुर्गासप्तशती के पाठ के पूर्व नवार्ण मन्त्र का जप किया जाता है। देवी की उपासना करने वाले इस मन्त्र का जप नित्य अपनी इच्छानुसार (१, ७,११, २१ माला) कर सकते हैं। नवार्ण मन्त्र का जप कमलगट्टे की माला, रुद्राक्ष, लाल चंदन और स्फटिक की माला पर किया जाता हैं। एकाग्रचित्त होकर भगवती दुर्गा के सम्मुख इस मन्त्र का जप करना चाहिए। जगद्धात्री दुर्गा इससे बहुत शीघ्र प्रसन्न होती हैं।

इस मन्त्र के धीमे और सस्वर जप के साथ दुर्गा के तीनों स्वरूपों के ध्यान करने का भी नियम है। अर्थात् जब महाकाली के लिए जाप करें तो महाकाली का स्वरूप, महालक्ष्मी के लिए जाप करें तो महालक्ष्मी का स्वरूप और महासरस्वती के लिए जाप करें तो महासरस्वती के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।

महाकाली के स्वरूप का ध्यान

खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघांशूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्।।

अर्थात्-कामबीजस्वरूपिणी महाकाली का ध्यान इस प्रकार है-भगवान विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिए कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं ध्यान करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ,शूल, भुशुण्डी, कपाल और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। उनके समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों विभूषित हैं तथा उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं।

महालक्ष्मी के स्वरूप का ध्यान

ॐ अक्षस्त्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनु: कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्।।

अर्थात्-मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्नमुख वाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ जो अपने हाथों में अक्षमाला,फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका,दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घण्टा, मधुपात्र,शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं। ये अरुण प्रभावाली हैं, रक्तकमल के आसन पर विराजमानमायाबीजस्वरूपिणी महालक्ष्मी मैं का ध्यान करता हूँ।

महासरस्वती के स्वरूप का ध्यान

ॐ घण्टाशूलहलानि शंखमुसले चक्रं धनु: सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्
गौरीदेहसमुद्धवां त्रिजगतामाधारभूतां महा
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्।।

अर्थात्-जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल,शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करतीहैं, शरद् ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है उन वाणीबीजस्वरूपिणी महासरस्वतीदेवी का मैं निरन्तर भजन करता हूँ।

पराम्बा आदिशक्ति द्वारा त्रिदेवों को नवार्ण मन्त्र का जप करने का निर्देश

देवी जगदम्बिका ने भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश से कहा- 'आप इस मन्त्र को सभी मन्त्रों से श्रेष्ठ जानिए। बीज और ध्यान से युक्त मेरे इस नवाक्षर मन्त्र का जप समस्त भय दूर कर देगा। मेरे द्वारा दिया गया वाग्बीज (ऐं), कामबीज (क्लीं) तथा मायाबीज (ह्रीं) इनसे युक्त यह मन्त्रपरमार्थ प्रदान करने वाला है। आप इसका निरन्तर जप कीजिए, ऐसा करने से न तो मृत्युभय होगा और न काल का डर सताएगा।'

पराम्बा आदिशक्ति ने ब्रह्मा को महासरस्वती,विष्णु को महालक्ष्मी तथा शिव को महाकाली (गौरी) देवियों को देकर ब्रह्मलोक, विष्णुलोक तथा कैलास जाकर अपने-अपने कार्यों का पालन करने को कहा।

आदिशक्ति देवी भगवती मनुष्य की इच्छा से अधिक फल प्रदान करने की सामर्थ्य से युक्त हैं। ऋग्वेद (१०।१२५।५) में देवी कहती हैं-'मैं जिस-जिसको चाहती हूँ, उस-उसको श्रेष्ठ बना देती हूँ
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