भगवान शिव भूत्, भविष्य और वर्तमान–तीनों कालों की बातों को जानते हैं, इसी से ‘त्रिनयन’ कहलाते हैं। चन्द्र, सूर्य और अग्नि उनके तीन नेत्र हैं।
एक बार भगवान शिव शान्तचित्त बैठे हुए थे। उसी समय पार्वतीजी ने विनोदवश पीछे से आकर भगवान शिव के दोनों नेत्र मूंद लिए। भगवान शिव के सूर्य और चन्द्ररूपी नेत्रों के बंद होते ही संसार में अंधकार छा गया और जगत में अकुलाहट होने लगी। तब शिवजी के ललाट से अग्निस्वरूप तीसरा नेत्र प्रकट हुआ। उसके प्रकट होते ही दसों दिशाएं प्रकाशित हो गयीं, अंधकार हट गया। परन्तु हिमाचल जैसे पर्वत भी उस ललाटाग्नि से जलने लगे। यह देखकर पार्वतीजी घबरा गईं और हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगीं। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर संसार की स्थिति यथावत् कर दी और तभी से ‘त्रिनेत्र’ व ‘त्रिनयन’ कहलाने लगे।
पंचानन या पंचवक्त्र
एक बार भगवान विष्णु ने अत्यन्त मनोहर किशोर रूप धारण किया। उस मनोहर रूप को देखने के लिए चतुरानन ब्रह्मा, बहुमुख वाले अनन्त आदि देवता आए। उन्होंने एकमुख वालों की अपेक्षा भगवान के रूपमाधुर्य का अधिक आनन्द लिया। यह देखकर शिवजी सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख व नेत्र होते तो मैं भी भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता। शिवजी के मन में इस इच्छा के उत्पन्न होते ही वे पंचमुख हो गए (भगवान शिव के पांच मुख–अघोर, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और ईशान हैं) और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से उनको ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहते हैं।