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राष्ट्र या धर्म की रक्षा हेतु की गयी हिंसा धर्म है !

“अहिंसा को परम धर्म ”मांसभक्षण के प्रसंग में ही कहा गया है । धर्मरक्षा या देशरक्षा के लिए “रणभूमि” के प्रसंग में यही अहिंसा अधर्म का रूप ले लेती है; क्योंकि कृपा जैसे एक महान् गुण है पर वही रणभूमि में शत्रुदल पर हो जाय तो वह एक महान् दुर्गुण हो जाता है । इसीलिए भगवान् ने कृपा से आविष्ट अर्जुन को देखकर उन्हे कोसते हुए रणभूमि मे होने वाली कृपा को अनार्य-सेवित अकीर्ति-कर आदि शब्दों से कहा । (गीता-2: 2)
यदि युद्ध में अहिंसा का कोई महत्त्व होता तो शत्रुसैन्य पर विजय प्राप्त करके धर्मपूर्वक पृथिवी का पालन करें– यह आज्ञा शास्त्र कभी भी नही देते!
”निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत् “

महाभारत भीष्म पर्व में भगवान् व्यास से प्राप्त दिव्यदृष्टि वाले सञ्जय स्वयं धृतराष्ट्र से कहते हैं कि "पुण्यात्माओं के लोकों को प्राप्त करने की इच्छा वाले नृपगण शत्रुसैन्य में घुसकर युद्ध करते हैं”
युद्धे सुकृतिनां लोकानिच्छन्तो वसुधाधिपाः ।
चमूं विगाह्य युध्यन्ते नित्यं स्वर्गपरायणाः ।। (83/10)
यदि युद्ध क्षेत्र की हिन्सा अधर्म होती तो सञ्जय ऐसा नही कहते । और न ही भगवान् कृष्ण वीरवर पार्थ को शत्रुओं से संग्राम करने का आदेश ही देते— “मामनुस्मर युध्य च” (गीता–8: 7)
युद्ध में वीरगति-प्राप्त योद्धा को स्वर्ग से भी उच्चलोक की प्राप्ति होती है ! इस संसार में मात्र 2 ही प्राणी ऐसे हैं जो सूर्यमण्डल का भेदन करके भगवद्धाम जाते हैं ।
1. सम्पूर्ण जगत् से अनासक्त योगी ।
2. शत्रु के सम्मुख रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने वाला योद्धा ।
“द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ।। (उद्योग पर्व, विदुर नीति)

शार्ड़ंगधरपद्धति ग्रंथ !
ब्रह्मवेत्ता सूर्य की रश्मियों के सहारे सूर्यलोक पहुंचकर वहीं से ऊपर हरिधाम जाता है!
“अथ यत्रैतस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैततैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते “ (छान्दोग्य-8/6/5)
“तयोर्ध्वमायन्नमृतत्त्वमेति" (8/6/6)
इस वाक्य से भगवद्धामरूपी मोक्ष प्राप्त करना बतलाया गया है ।
(“रश्म्यनुसारी”– ब्रह्मसूत्र- 4/2/17) में सभी भाष्यकारों ने इस तथ्य का निरूपण किया है । इसे वेदान्त में “अर्चिरादि मार्ग” कहा गया है । इससे ऊर्ध्वगमन करने वाला प्राणी पुनः संसार में नही लौटता । जबकि यज्ञ, दान, तपश्चर्या करने वाले स्वर्ग सुख भोगकर पुण्य-क्षय के पश्चात् संसार में लौटते हैं । यही यज्ञ, दान आदि तो अहिंसा के फल बतलाये गये हैं । पर रणभूमि में जाकर शत्रुओं पर काल बनकर टूट पड़ने वाला योद्धा यदि वीरगति को प्राप्त हो जाय तो वह उस स्थान को प्राप्त करता है जो “अहिंसा परमो धर्मः” वाले को भी परम दुर्लभ है । अतः निष्कर्ष निकला कि राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए की गयी “रणभूमि की हिंसा” अहिंसा से भी श्रेष्ठ धर्म है। इसलिए भगवान् परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, छत्रपति वीर शिवा जी और
प्रचण्डपराक्रमी गुरू गोबिंद सिंह जी देशद्रोहियों और धर्मविध्वंसकों पर काल बनकर टूटे ।
“अहिंसातः परो धर्मः हिंसा युद्धे हि मुक्तिदा ।
इति स्वान्ते विनिश्चित्य शत्रुसैन्यं विमर्द्यताम् । ।