भगवान के भजन से बढ़कर मीठी चीज कोई है ही नहीं। इसलिए भक्त निरन्तर भगवान के भजन में मस्त रहता है। वाल्मीकि रामायण के अंत में आता है कि भगवान श्रीराम के स्वधाम पधारने के समय हनुमानजी ने पृथ्वी पर तब तक रहना स्वीकार कर लिया था जब तक कि रामकथा का अस्तित्व रहेगा। राम नाम के बल से असंख्य रूप धारण करने की सिद्धि प्राप्त होने से वे राम नाम रुपी रस के लिए जहां-जहां रामकथा होती है, वहां-वहां सजल नेत्रों के साथ प्रेमसागर में हिलोरें लेते हुए विराजमान रहते हैं।
✨राम नाम से तृप्त हुए हनुमानजी ✨
लंका विजय के बाद श्रीराम, लक्ष्मण व सीताजी के साथ हनुमानजी भी अयोध्यापुरी आ गए। अवधपुरी में ही वे श्रीराम की सेवा करते हुए निवास करने लगे। श्रीहनुमान श्रीराम के सिंहासन के पादपीठ के पास दक्षिण में वीरासन में बैठे रहते।
भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद एक दिन माता जानकी ने वात्सल्यभाव से हनुमानजी से कहा-'कल मैं तुम्हें अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाऊंगी।' हनुमानजी के आनन्द का क्या कहना? जगन्माता सीता स्वयं अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाएं, ऐसा सौभाग्य किसे मिलता है? दूसरे दिन जनकनन्दिनी सीता ने अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये और हनुमानजी को आसन पर बिठाकर परोसने लगीं। माता के स्नेह से भाव-विभोर होकर हनुमानजी बड़े प्रेम से भोजन करने लगे। माता सीता जो कुछ भी थाली में परोसतीं, एक ही बार में वह हनुमानजी के मुख में चला जाता। माता की रसोई का भोजन समाप्त होने को आया पर हनुमानजी के खाने की गति कम न हुई। माता जानकी बड़ी चिन्तित हुईं कि अब क्या किया जाए? लक्ष्मणजी यह देखकर सब समझ गए और सीताजी से बोले-'ये रुद्र के अवतार हैं, इनको इस तरह कौन तृप्त कर सकता है?' लक्ष्मणजी ने एक तुलसीदल पर चन्दन से 'राम' लिखकर हनुमानजी की थाली में रख दिया। वह तुलसीदल मुख में जाते ही हनुमानजी ने तृप्ति की डकार ली और थाली में बचे हुए भोजन को पूरे शरीर पर मल लिया और राम-नाम का कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे।
अध्यात्मरामायण में हनुमानजी अपना परिचय देते हुए श्रीराम से कहते हैं-
'देहबुद्धि से मैं अपने आराध्य श्रीराम का दास हूँ, जीवदृष्टि से आपका अंश हूं और आत्मा की दृष्टि से तो आप और मैं एक हैं।'