मां विंध्यवासिनी के चार रूप चार वेदों की प्रतीक हैं। अनादि काल से विंध्याचल में विराजमान मां विंध्यवासिनी देवी चार रूपों में अपने भक्ताें का पालन करती हैं। सभी रूपों की नित्य आरती होती है। मान्यता है कि चाराें रूप का दर्शन करने से भक्तों की कोई भी कामना अधूरी नहीं रहती है।
ब्रम्ह मुहूर्त में मां विंध्यवासिनी के बाल स्वरूप का दर्शन होता है। इस रूप की आरती भोर में तीन से चार बजे के बीच होती है, इसे मंगला आरती कहते हैं। मां के इस स्वरूप का दर्शन करने से सदैव मंगल होता है। मध्यान्ह के समय मां के युवा रूप का दर्शन होता है। इस रूप की आरती मध्यान्ह बारह से एक बजे तक होती है। इसे मध्यान्ह या राजश्री आरती कहते हैं। इस रूप में मां अर्थ की अभिलाषा की पूर्ति करती हैं।
सायंकाल में मां विंध्यवासिनी प्रौढ़ रूप में नजर आती हैं। इस रूप के लिए छोटी आरती सांय सवा सात बजे से सवा आठ बजे तक होती है। इस स्वरूप से मां अपने भक्तों की सर्वकामना को पूर्ण करती हैं। चौथे रूप में मां वृद्धावस्था में मोक्ष प्रदायिनी हैं। ये देव-दरबार काल होता है और इसमें मां अपने भक्तों को देव-जननी के रूप में दर्शन देती हैं। इस रूप के लिए रात्रि में बड़ी आरती साढ़े नौ बजे से साढ़े दस बजे तक होती है। इस तरह से मां के चार रूप भक्तों के धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की कामना की पूर्ति करते हैं।
मां का पहला रूप ऋगवेद से जोड़ता है, इसमें धर्म की बातें उल्लिखित हैं। दूसरा रूप यजुर्वेद से संबंधित है, इसमें अर्थ एवं ऐश्वर्य का वर्णन मिलता है। तीसरा रूप सामवेद से जुड़ा है, इस वेद में गीत-संगीत के श्लोक का वर्णन मिलता है तथा मां का चौथा रूप अथर्ववेद का प्रतीक है, इसमें मोक्ष प्रदान करने वाले श्लोक मंत्राब्ध हैं। मां विंध्यवासिनी देवी के चार रूप, चार कामना व चार वेदों से मां अपने भक्तों का पालन करती हैं।