संसार को तो हम पसन्द करते रहते हैं और परमात्मा से मिलना चाहते हैं। यह कभी सम्भव नहीं होगा। संसार को पसन्द करते हुए परमात्मा से मिलना सम्भव नही। हाँ, एक बात है कि संसार के द्वारा हमें जो वस्तु प्राप्त है, उसे संसार की सेवा में लगा दें। जो सामर्थ्य प्राप्त है उसे भी सेवा में लगा दें। योग्यता प्राप्त है वह भी सेवा में लगा दें। हमसे गलती यह होती है कि सेवा तो हम करते नहीं, न वस्तु के द्वारा, न योग्यता के द्वारा, न सामर्थ्य के द्वारा, न सद्भाव के द्वारा। सेवा करते नहीं और चाहते हैं कि संसार हमको नापसन्द हो जाय। सो कैसे होगा भाई? सेवा नहीं करोगे तो सेवा का उल्टा मालूम है क्या होता है?-भोग। तो भोग करोगे। अगर सेवा नहीं करोगे तो भोग करोगे। *अगर मिली हुई वस्तु-योग्यता-सामर्थ्य को सेवा-सामग्री नहीं बनाते हो तो वह भोग-सामग्री बन जायगी। और भोग करोगे तो मोह और आसक्ति में आबद्ध हो जाओगे।*
क्या कारण है कि हमारे जीवन का मोह नाश नहीं होता, आसक्ति नाश नहीं होती? इसलिए, कि हम सेवा नहीं करते हैं, भोग करते हैं। भोग होता है ममता से, कामना से, तादात्म्य से। इनके बिना भोग की सिद्धि नहीं होती। यदि हम सेवा करना पसन्द करें, तो सेवा होगी प्राप्त वस्तु से, अप्राप्त से नहीं, प्राप्त से, प्राप्त सामर्थ्य से, प्राप्त योग्यता से प्राप्त की ही सेवा होती है। क्या राय है? अप्राप्त की सेवा होती है क्या? और प्राप्त के द्वारा ही होती है। *तो जो-जो वस्तु प्राप्त हैं, जो-जो व्यक्ति प्राप्त हैं, जो-जो योग्यता, सामर्थ्य प्राप्त हैं-उसके द्वारा प्राप्त व्यक्तियों की सेवा कीजिये अथवा प्राप्त परमात्मा को पसन्द कीजिये। प्राप्त की सेवा कीजिये; और प्राप्त ही परमात्मा को पसन्द कीजिये।* तो जो संसार तुम्हें प्राप्त मालूम होता है तो वह आपका सेव्य हो गया और परमात्मा जो दिखाई नहीं देता वह आपका प्रिय हो गया। परमात्मा हमारा प्रेम पात्र है, संसार हमारी सेवा का सेव्य है। तो संसार की सेवा और परमात्मा का प्रेम, अगर आपको पसन्द आ जाय तो अभाव का अभाव हो सकता है। *परमात्मा का प्रेम और संसार की सेवा आपको पसन्द आ जाय -यही सार निकला न!*
कौन सी प्रवृत्ति ऐसी है जिसमें झंझट नहीं है।* सेवा माने प्रवृत्ति, प्रवृत्ति हैं दूसरे के हित के लिए। तुम अपने सुख के लिए प्रवृत्ति करते हो, दूसरे के हित के लिए नहीं करते। इसलिए झंझट मालूम होती हैं। तो झंझट तुम्हारी बेवकूफी में है कि सेवा में है? मैं आपसे बड़ी नम्रता के साथ यह बात निवेदन करना चाहता हूँ, *इस पर लोगों को गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि जो लोग यह सोचते हैं कि शरीर हमारी रुचि-पूर्ति का साधन है, वे कभी भी शान्ति नहीं पाते।* उनको कहीं भी, कभी भी शान्ति नहीं मिलती। शरीर है सेवा सामग्री। तो शरीर की आवश्यकता के लिए तो आपको संसार चाहिए, पर संसार के काम आने के लिए तुम्हारी छाती फटती है। सारी जवानी चल-चल कर बर्बाद करोगे, टुकड़े माँग-माँग कर बर्बाद करोगे, पर काम नहीं करोगे, सेवा नहीं करोगे। तो यह जीवन का सत्य नहीं है। *जीवन का सत्य यह है-काम करो कुछ चाहो मत।*
*यह भम्र निकाल दो कि तुम रुचि पूर्ति करते रहो और तुमको शान्ति मिल जाय। यह किसी काल में नहीं मिलेगी और आज तक किसी को नहीं मिली। शान्ति उसी को मिली है जो दूसरों के काम आया है अथवा जो अचाह हो गया, अथवा शरणागत हो गया है।* चाहे तो प्रभु के शरणागत होकर प्रभु के नाते सेवा करो। चाहे अचाह होकर आत्मा के नाते सेवा करो। चाहे उदार होकर जगत के नाते सेवा करो। *सेवा करने से जान बचेगी नहीं! कितना ही भटक लो। अनुभव कर लो, भटक लो, देख लो। जान नहीं बचेगी।* हाँ सुख की दासता, दुःख के भय में बँधे रहोगे, सेवा नहीं करोगे तो। अगर सेवा करोगे तो सुख की दासता भी नाश हो जायेगी, दुःख का भय भी नाश हो जायगा। परमात्मा भी मिल जायगा, शान्ति भी मिल जायगी, मुक्ति भी मिल जायेगी, भक्ति भी मिल जायेगी। *यह जीवन का सत्य है।*
जगदम्ब भवानी