Anupama Jain's Album: Wall Photos

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मुलाकात एक औघड़ कलाकार से

इंटरव्यू ऑफ़ द वीक
अक्षर डिजायनर जैन कमल
जिसने अखबारों को पठनीय और खूबसूरत बनाया
लोकमित्र
‘मैंने जैन कमल को वर्षों एक डिजायनर ,एक अक्षरशिल्पी,एक कलाविद और निःसंदेह एक विचारक के रूप में काम करते देखा है | मैंने इतना परिपूर्ण काम दुर्लभ ही देखा है | मैं उनकी तुलना धरती की दो महान शख्सियतों से ही कर सकता हूँ-सत्यजित रे और आर के जोशी |’
जैन कमल के बारे में प्रीतिश नंदी [विख्यात पत्रकार ]
वह एक अक्षर डिजायनर है बल्कि कहना चाहिए अक्षर आराधक,जिसके पास ‘अक्षर’ से इश्क की अनगिनत कहानियां हैं | वह एक जुनूनी है, जो धरती से खो चुकी एक लिपि को ‘कंप्यूटर के की-बोर्ड’ में लाने के लिए दशकों से सोया नहीं है | वह एक टाइपोग्राफर जिसके डिजायन किये हुए अक्षर हर सुबह 15 करोड़ हिन्दुस्तानियों की 30 करोड़ आँखों के सामने से गुजरते हैं | वह मीडिया की तमाम कामयाब कहानियों का शिल्पी है,जिन कहानियों को पूरी उम्र सुना,सुनाया जा सकता है,वह भी बिना ऊबे हुए | वह जैन कमल है,जी हाँ ! कमल जैन नहीं | यह शख्स हिंदी इण्डिया टुडे से लेकर दैनिक सन्मार्ग [कोलकाता ] तक 60 से ज्यादा पत्रिकाओं व दैनिक अखबारों का चेहरा बदल चुका है यानी इन्हें डिजायन कर चुका है | यह शख्स 10 सालों तक फिल्म सेंसर बोर्ड में ज्यूरी रहा है | 19 साल की उम्र में इसे ललित कला अकादमी पुरस्कार मिल चुका था | इसने पटना और बड़ोदरा कालेज ऑफ़ फाइन आर्ट्स से एमएएफए से डिग्री हासिल की है | देश ही नहीं दुनिया में विख्यात ‘नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ़ डिजायन’ अहमदाबाद में पढ़ाने गया ,मगर मजा नहीं आया तो जॉब छोड़ मुंबई आ गया और मीडिया के अनंत सौन्दर्यबोध का आख्यान बन गया |
जैन कमल नाम का यह शख्स सम्पूर्णता में क्या बला है, एक दो बैठकों,मुलाकातों और संवादों में तो शायद समेटना ही मुश्किल है | कहीं से शुरू करके कहीं पहुँच जाने वाले इस शख्स की मधुरवाणी कब घन गर्जन में में तब्दील हो जायेगी, आप इसका पहले से अंदाजा ही नहीं लगा सकते | कलाकार अपनी धुन,ध्वनि और चितवन तक में कलाकार होता है यह बात जैन कमल के साथ रहते हुए हर पल आपको महसूस होती है | पटना फाइन आर्ट्स कालेज के ही एक ग्रेजुएट और कला पर निरंतर तमाम अखबारों में लिखने वाले सुमन कुमार सिंह ने जब मुझे इस शख्स से मिलने का सुझाव दिया था, तब तक मुझे उनके बारे में कुछ नहीं पता था | वह एक कलाकार होंगे,मैंने बस इतना ही सोचा था | फिर जब मिलने के लिए फोन में बात हुई तो यह शख्स मुझे आकर्षक की बजाय उबाऊ ही लगा | मुझे लग रहा था कि बस 15-20 मिनट का एक इंटरव्यू ले लूँगा | गया भी इसी मनःस्थिति से था | लेकिन जब उनके भायंदर स्थित आवास में पहुंचा और बातचीत होने लगी तो अंदाजा लगा कि जिससे मिलने आया हूँ कोई कलाकार नहीं बल्कि यह शख्स तो औघड़ हैं | एक शरीर में समाये न जाने कितने कलाकार | ऐसे में सारी योजना गड्डमड्ड होनी ही थी | 15-20 मिनट की बातचीत के इरादे से गया था और 127 मिनट की बातचीत तो अकेले रिकार्ड में हुई | बिना रिकार्ड इससे भी ज्यादा |
बहरहाल न जाने कितने विषयों,सन्दर्भों और प्रसंगों पर बातचीत हुई | इसलिए कई दिनों तक इस मुलाक़ात की खुमारी में रहा | मगर अब समस्या यह थी कि इस वृहद् ,जटिल और बिखरी हुई अनंत विषयों-प्रसंगों वाली बातचीत को प्रस्तुत किस फोर्मेट में किया जाए ? क्योंकि सवाल –जवाब के फोर्मेट में तो यह अंटने वाली नहीं थी | इस तरह की बातचीत को सुनने-सुनाने के लिए जिस प्रासंगिक माहौल की जरुरत होती है, वह यहाँ नदारद था | इस बातचीत में घटनाओं की जिज्ञासा और खुलासे की बेचैनी का कोई तड़का भी नहीं था | जो कुछ था, वह था विशुद्ध नशा,विशुद्ध रोमांस और विशुद्ध कला | जिसे बेतरतीब क्रम के छोटे छोटे मनमौजी आख्यानों में ही शायद बाँधा जा सकता था | मैंने यहाँ बस उस बुनियादी बातचीत के एक टुकड़े को ही रखने की कोशिश की है जिससे पता चलता है कि इस शख्स ने देश के तमाम अखबारों को खूबसूरत बनाने के लिए आखिर क्या कलाकारी की ?
जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि जैन कमल एक ऐसा मीडिया डिजायनर है जिसके पास ‘अक्षर’ गाथा सुनाने को अनगिनत कहानियां हैं | शायद इसलिए कि यह केवल अक्षर आराधक भर नहीं है उनसे खेलता भी है | इसने अक्षरों से इश्क किया है | इसीलिये उसने इनसे इतिहास भी रचा है | कभी उनके प्रभाव को तौलकर ,कभी उनके विस्तार में इन्द्रधनुषी रंग भरकर |
...तो यूँ शुरू हुआ देश में ड्राप लेटर का सफ़र
हिन्दुस्तान में ‘ड्राप लेटर’ की शुरुआत करने वाला शख्स यही है | देश में पहली बार ड्राप लेटर कांसेप्ट को जैन कमल ने अस्सी के दशक में डेबोनियर पत्रिका में इस्तेमाल किया | हालाँकि विकीपीडिया के मुताबिक़ दुनिया में इसका चलन बीसवीं सदी के पहले दशक यानी 1910 से ही हो रहा था | लेकिन हिन्दुस्तान में जैन कमल ने ही इसे पठनीयता में चार चांद लगाने के लिए इस्तेमाल किया | यह सब कैसे हुआ ? आइये उन्हीं से सुनते हैं, ‘मैंने डेबोनियर पत्रिका में एक एक्सपेरिमेंट किया था अब उस पर मैं एक किताब भी लिख रहा हूँ जिसका नाम है ‘ड्राप लेटर’ | जी,हाँ 90 फीसदी संपादक नहीं जानते कि ड्राप लेटर क्या है और हम उसे क्यों इस्तेमाल करते हैं ?
ड्राप लेटर का कांसेप्ट कुछ यूँ है कि जब आप कोई धारावाहिक पढ़ते हैं यानी स्टोरी का एक हिस्सा आज पढ़ा और अगला हिस्सा अगले अंक में आना है | कहने का मतलब एक सीक्वेंस को मेंटेन करनी है | ऐसे में बड़ा सवाल यही होता है कि पाठक की रूचि कैसे बनाये रखी जाए ? या 2000-4000 शब्दों की स्टोरी को एक सामान्य पाठक से कैसे पढवा लिया जाए | इन सवालों को लेकर मैंने डेबोनियर में सबसे पहले बहराम कांट्रेक्टर और डॉम मोरिस की स्टोरी में ड्राप लेटर का इस्तेमाल किया | जब मैंने यह किया तो हिन्दुस्तान में ड्राप लेटर का यह सबसे पहला इस्तेमाल था और जैसा कि मैंने बताया कि इसके पीछे मेरी सोच कंटेंट को अलग दिखाने भर की या खूबसूरती बढाने भर की नहीं थी | इसके पीछे मूल सोच यह थी कि पाठक को कैसे उबाये बिना लम्बी-लम्बी स्टोरी पढवाया जाए |
उदाहरण के लिए जैसे डॉम मोरिस की एक स्टोरी है | जिसमें वह लिखते हैं कि रात में मैं पीकर गली के अन्दर से जा रहा था | वहां ऐसा हुआ.... ,वहां वैसा हुआ...और इसके बाद मैं नाली में गिर गया | यहाँ से कहानी टर्न लेती है | तो कहानी टर्न लेते हुए दिखनी चाहिए न ? यहाँ मैं आगे की कहानी सुनाने के लिए ड्राप लेटर का इस्तेमाल करता हूँ | क्योंकि यहाँ से कहानी नयी बात कहनी शुरू करती है | जो पिछली बात से अलग है | यहीं ड्राप लेटर अपनी ताकत दिखाता है | अपने अलग दिखने और सुनार दिखने की ताकत से ड्राप लेटर पाठक का कॉलर पकड़कर,उसको स्टोरी पढने के लिए मजबूर कर देगा | कुल मिलाकर लिखे हुए को पढवाने की कला है डिजायन और इसी डिजायन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ड्राप लेटर |
चल निकला ड्राप लेटर और मैं भी
ड्राप लेटर सबको पसंद आया | भले ज्यादातर लोगों को इसके पीछे की सोच समझ नहीं आयी लेकिन पसंद सबको आया | कुछ लोगों ने तो इसे महज फैशन समझा और उसी तरह खुद इस्तेमाल भी करने लगे जैसे फेमिना | फेमिना में ड्राप लेटर को ऐज ए फैशन रखा जाने लगा | लेकिन मेरे कांसेप्ट को इस देश में एक आदमी ने सबसे अच्छी तरह से समझा | वह था बहराम कांट्रेक्टर | आफ्टरनून अखबार का संपादक | वह साला रोज मुझसे बात करने के लिए अपनी गाड़ी भेजता | बोलता कमल को बुलाओ | मैंने उस समय उसके अखबार को डिजायन करने के लिए 25,000/-रूपये चार्ज किये थे | आफ्टरनून एक मारा हुआ पेपर था | बहरहाल मेरे कहने का मतलब यह है कि ड्राप लेटर वह जादू था जिसने 2000-4000 शब्दों की स्टोरी को ही पढ़ाने में मदद नहीं की मेरी भी कीमत बढ़ा दी | लेकिन जिस ड्राप लेटर ने अंग्रेजी में आकर्षण और पठनीयता की इतनी कामयाब कहानी लिखी, वह सब हिन्दी में इतना आसान नहीं था क्यों? बताता हूँ | ‘ऐसा इसलिए था क्योंकि हिंदी में अंग्रेजी जैसे सभी अक्षरों की लम्बाई एक जैसी नहीं है | हिन्दी में अगर मान लीजिये हमने कोई ड्राप लेटर अ अक्षर से शुरू किया है तो उसके आगे जैसे ही आप अंगूर शब्द लिखेंगे तो वहां पूरी लाइन या डिजाइन डिसबैलेंस हो जाएगी | इसलिए हिंदी में आपरेटर ड्राप लेटर कांसेप्ट से कन्नी काटता | मैंने उसके लिए एक तरीके की खोज की |
हाथ लगा लॉक टू लीड सिस्टम
इसके लिए हमने ‘लॉक टू लीड सिस्टम’ का इस्तेमाल किया | दरअसल अगर हम कंप्यूटर में कंट्रोल और एफ 7 दबायेंगे तो पूरे पेज में लाइन लाइन आ जायेंगे | फिर जैसे ही हम लॉक करेंगे पेज की पठनीयता डबल हो जाएगी | ये तकनीक हालांकि कंप्यूटर में पहले से ही मौजूद थी लेकिन इस्तेमाल नहीं हो रही थी | इसे मैंने ही देश में सबसे पहले खोजा या इस्तेमाल किया | लेकिन ये ख़ूबसूरती यूँ ही नहीं आ गयी | इसके पीछे और कहानियां भी हैं | वास्तव में पहले क्या होता था कि पत्रकार लोग स्टोरी लिखकर आपरेटरों के पास पटककर घर चले जाते थे | मैंने इन्डियन एक्सप्रेस के मालिक को ब्रीफ किया कि क्यों पत्रकारों को ही अपनी स्टोरी टाइप करना चाहिए न कि आपरेटरों को | मालिक को बात समझ आ गयी |उसने नोटिस बोर्ड में एक नोटिस लगा दिया कि अगर नौकरी करना है तो अपनी स्टोरी खुद फीड करके जानी होगी | हालाँकि इसकी वजह से आधे से ज्यादा लोग नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर हो गए | इस कारण तमाम पत्रकार मुझे पीटने के लिए ढूँढने लगे | वे मेरी पिटाई करना चाहते थे ,फिर चाहे वे महाराष्ट्रियन हों,बिहारी हों या यूपियन हों |
मैं यह सब पहले से ही जानता था | लेकिन मैं अपनी सोच में इतना बदमाश था कि यह सब करना ही था | मुझे मालुम था कि अपने कांसेप्ट को मैं अगर पत्रकारों या एडिटर के साथ डिस्कस करूंगा कोई नहीं सुनेगा | लेकिन अगर वही बात उनसे मालिक बोलेगा तो सब सुनेंगे,सबको सुनना ही पड़ेगा | इससे अखबार को बहुत बेनीफिट हुआ | इससे अख़बार बहुत साफ़ सुथरा हो गए | इससे उनके चेहरे निकल आये | क्योंकि जब तक आपरेटर के जिम्मे टाइपिंग थी, तब तक होता यह था कि अगर स्टोरी छोटी पड़ गयी तो उसे पेज बनाने वाले लोग लीडिंग बढ़ाकर एडजस्ट कर लेते थे इसी तरह अगर बढ़ गयी तो कुछ लाइनें काट देते थे | मैंने फोर्मेट को लॉक कर दिया | आपको कम करना हो या बढ़ाना हो जबरदस्ती नहीं चल सकती | इस सबसे अखबारों को पढने में बहुत सहूलियत हुई | उनमें सुन्दरता दिखने लगी | यह एक रिवोल्यूशन था | लेकिन यह यूँ ही नहीं हुआ | इसमें कंट्रोलिंग ऑफ़ कंप्यूटर ,नालेज ऑफ़ कंप्यूटर एंड फीडिंग ऑफ़ कंप्यूटर को कंट्रोल किया जैन कमल के डिजायन ने |
यह आइडिया नहीं एक किस्म का बाइबिल है
जी,हाँ मैं पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ कि अखबार की डिजाइनिंग का यह बाइबिल है | मैंने लोकसत्ता के लिए रिसर्च गाइड बुक बनाया है | उसे अगर मैं आपको दे दूं तो आप किसी अखबार को खुद ही ठीक कर देंगे बिना मेरे | इसमें अखबार को डिजाइन करने का पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट है | मैंने ऐसी एक दो नहीं 60 से ज्यादा बाइबिलें लिखी हैं | कहने का मतलब यह कि मैंने जिस भी अखबार को डिजायन किया है, उसके लिए उसकी डिजाइन गाइड भी लिखी है | अब इसमें एक बड़ी और बाधा आयी | इंग्लिश में साढ़े सात लाख फॉण्ट हैं | देवनागरी में 450 फॉण्ट हैं | हमने इंजीनियर के साथ बैठकर महज 20-25 फॉण्ट को चुन लिया और बाकी सबको कंप्यूटर से निकाल बाहर किया ताकि उसका बोझ घटे | इससे कंप्यूटर भी तेज चलने लगे और हमारी डिजाइन में गैर जरूरी हस्तक्षेप होने भी बच गए | इस तरह अखबारों को सुंदर बनाने में उनको पठनीय बनाने में बहुत लड़ाई लड़ी गयी है | बाकी फिर कभी |