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Anupama Jain
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मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
तुम समंदर बन कर समेट लेना मुझे
मैं खो देती अस्तित्व अपना
मेरा मीठा पानी तुम से मिल खरा हो जाता
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
तुम हो तो विशाल बहुत नदी तुममे समाती
फिर भी मैं सब भूल कर तुम में समहित हो जाती
तुम तो समंदर ही रहते पहले भी बाद में भी
पर मैं खुद को खो देती मैं नदी समंदर में समां जाती
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
तुम जब ज्वार रूप में गुस्सा चढ़ता
तो मेरे समपर्ण को नकार देते हो
मुझे मेरा ही पानी लौटा देते हो
कितने बेदर्द हो भूल जाते मेरी तकलीफ
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
जब शांत होते भाटा रूप में तो मुझे
अपने पास बुला लेते मुझे आलिंगन करते
समेट लेते पुनः अपने आप में
मैं व्याकुल हो जाती समां जाती तुम में
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
तुम शांत कभी कभी ही अपना भीषण रूप दिखते
मैं चचंल बहती आतुर रहती तुम से मिलन को
यु हो करते प्यार तुम भी बस दिख नहीं पाते
मैं बारम्बार तुम से कहती तुम समझ नहीं पाते
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
गुस्सा मुझे भी आता बाढ़ रूप में फूट जाता
जन धन की हानि कर जाती पर फिर भी
तुम में ही समां जाती
तुम करते मुझे शांत ये है हमारी प्रेम कहानी
मैं नदी की तरह समर्पित होती हु
अनुपमा जैन
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