अब ... जबकि आनुवांशिकी विज्ञान ने राखीगढ़ी में मिले नर - कंकालों का परीक्षण कर बता दिया कि इनमें आर्य जीन नहीं हैं तो मामला शीशे की तरह साफ हो गया कि राखीगढ़ी के निवासी आर्य नहीं थे। राखीगढ़ी द्रविड़ों की सभ्यता थी।
राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार जिले में है। इसकी खोज 1963 में हुई थी। यह सिंधु घाटी सभ्यता का अभिन्न अंग है, जिसकी पुष्टि वहाँ की नगर - योजना, अन्नागार, सड़कें, जलनिकासी - व्यवस्था, सील, लिखावटें आदि से हो जाती है।
ऐसे भी दुनिया में आर्य नस्ल की भाषाएँ उत्तरी भारत और श्रीलंका से लेकर ईरान और आर्मेनिया होते पूरे यूरोप में फैली हुई हैं। मगर सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष सिर्फ भारतीय प्रायद्वीप में ही मिलते हैं, उसका फैलाव यूरोप तक नहीं है। आश्चर्य कि द्रविड़ नस्ल की भाषाएँ भी सिंधु घाटी सभ्यता की तरह सिर्फ भारतीय प्रायद्वीप में ही मिलती हैं। भारतीय प्रायद्वीप को छोड़कर दुनिया के किसी कोने से द्रविड़ नस्ल की भाषाओं के बोले जाने के सबूत नहीं मिलते हैं।
सिंधु घाटी क्षेत्र से हमें आर्य भाषाओं के बीच नदी के द्वीप की तरह एक द्रविड़ भाषा मिलती है। उसका नाम ब्राहुई है। ब्राहुई भाषा पूरबी बलूचिस्तान में बोली जाती है। इसके पूरबी किनारे पर सिंधु घाटी की सभ्यता मौजूद है।
मगर सिंधु घाटी की सभ्यता द्राविड़ों की बौद्ध सभ्यता थी। शायद इसीलिए आरंभिक बुद्धों के नाम द्रविड़ भाषा के सबूत प्रस्तुत करते हैं। मिसाल के तौर पर, पहले बुद्ध का नाम तणहंकर बुद्ध है। तण द्रविड़ शब्द है, जो शीतलता का बोधक है। आर्य भाषाओं में तण के अवशेष नहीं मिलते हैं। तीसरे बुद्ध का नाम शरणंकर है। यहीं द्राविड़ों का शंकरण है। शंकरण द्राविड़ क्षेत्र में प्रचलित नामों में मिलते हैं जैसे शंकरण नायर, वी. शंकरण आदि। इसे भाषाविज्ञान में वर्ण - व्यत्यय कहते हैं जैसे वाराणसी का बनारस, लखनऊ का नखलऊ आदि।