या फैंक दो उतार कर शीशे का पैरहन,
या पत्थरों से सोच समझ कर मिला करो।
पिछले कुछ दिनों से अपहरण और बलात्कार की जिन घटनाओं ने देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया है, वे पहली बार हुई हों ऐसा तो नहीं है और आगे नहीं होंंगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। हमें तो बचपन से सिखा दिया जाता है कि लड़की लडके में फर्क तो ईश्वर ने ही कर दिया है तभी तो वह शारीरिक रूप से कमजोर है, कि
वह तो घर की इज्जत है। उसे किसी ने छू लिया या उसका दैहिक शोषण किया तो घर की इज्जत तो गई ही उस लड़की का लोक परलोक दोनों ही गए; मुंह छिपा कर जीने के लिए भी उसके पास कोई ठौर भी नहीं बचता है। इसके बावजूद आजतक किसी भी मां-बाप या उसके अध्यापक ने उसे अच्छी बुरी छुवन का फर्क समझाना भी कभी जरूरी नहीं समझा ; किसी ने भी उसे उक्त शे'र का मतलब नहीं बताया। कुल मिला कर इन सब का नतीजा यह निकला कि हमने इतिहास से कभी कोई सबक नहीं सीखा। हमारे आसपास ऐसे हादसे रोज होते रहे और हम यह सोच कर मुंह ढांप कर सोते रहे कि हमारे साथ ऐसा थोड़े न हुआ है।
भले ही निर्भया या आसिफा के मामले ने पूरे देश का दिल दहला दिया है, फिर भी आज तक वे सब बलात्कार कभी चर्चा का विषय नहीं बने जिन्हें अंजाम देने वालों को ही सरकारी वर्दी का संरक्षण मिला हुआ है। ठीक समझे आप, मैं आदिवासी इलाकों में 'नक्सली/अलगाववादी हिंसा' की बात कर रहा हूं जिनकी कमर व हौसला तोड़ने के लिए अर्ध सैनिक बल उनकी औरतों के साथ रेप करते हैं। मणिपुर में तो औरतें इसके खिलाफ पूरे कपड़े उतार कर प्रदर्शन भी करती हैं; 19 बरस की अल्हड़ युवती ईरोम आमरण अनशन करती हुई प्रौढ़ा बन जाती है और फिर भी चुनाव लडने पर भी उसे मिलते 329 वोट और दावा करते हैं हम औरतों की पूजा करने का ! ऐसा क्रूर मजाक भी केवल इसी देश में हो सकता है !
वो कहिए कि मीडिया ने 1972 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर की आदिवासी लड़की मथुरा का केस उछाल दिया वरना इस देश में आदिवासी और दलित लड़कियों/महिलाओं की भी कोई इज्जत होती है !!! जब चाहो चुटकियों में मसल दो, कोई आंख तक उठा कर नहीं देखेगा। दो सिपाहियों ने बलात्कार किया था उस आदिवासी लड़की मथुरा का। पर असल बात तो अभी बताई ही नहीं। सरकारी पक्ष ने इसे उचित ठहराने के लिए दलील दी कि मथुरा को तो अलग अलग मर्दों के साथ शारीरिक संबंध बनाने की आदत है। सरकारी वर्दीधारी आरोपी, जबरदस्ती बनाए गए सरकारी गवाह, देखते ही देखते बरी हो गए दोनों सिपाही जिला अदालत से। हाई कोर्ट की कार्यवाही पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया और मामले का निपटारा आज 46 साल के बाद भी नहीं हुआ।
1973 में एक क्रूरतम बलात्कार का शिकार हुई थी केरल की नर्स अरुणा शानबाग जिसकी मौत 42 साल कोमा में रहने के बाद हुई। चूँकि उस समय तक सोडोमी कोई अपराध नहीं माना जाता था, इसलिए आरोपी को बलात्कार कानून के तहत तो सजा ही नहीं हुई।
बलात्कार के घृणित मामलों में भी और जाति और वर्ण कितनी अहम भूमिका निभाता है इसका एहसास एक बार फिर 1992 में हुए भंवरी देवी मामले में हुआ। छोटी सी सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी राजस्थान के भतेरी गांव में काम कर रही थीं। उसने जब बाल विवाह के खिलाफ बोलना शुरू किया तो यह ऊंची जाति के लोगों को सहन नहीं हुआ। उसे सबक सिखाने के लिए पांच लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। बहुत दिनों तक मीडिया में बने रहने के बावजूद भंवरी देवी को छोटी जाति का होने की वजह से आज तक भी न्याय नहीं मिल सका।
1996 में सामने आया 25 साल की प्रियदर्शिनी मट्टू का मामला जो दिल्ली में कानून की पढ़ाई कर रही थी। सतोष कुमार सिंह नामक शख्स ने उसी के घर में बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी थी। इस केस में भी स्थानीय अदालत ने संतोष कुमार सिंह को बरी कर दिया था।
2005 में हुए इमराना रेप केस ने तो अलग धर्म के लिए अलग कानून की नई समस्या ही देश के सामने खड़ी कर दी है। इस मामले में उत्तर प्रदेश के एक गांव में इमराना का बलात्कार उसके अपने ससुर ने ही किया था। फिर भी गांव के बुजुर्गों ने इसे आपसी सहमति का मामला माना और इमराना को फरमान सुनाया कि वह अपने पति को छोड़कर अब अपने ससुर को ही अपना पति मान ले।लेकिन मीडिया में आ जाने से मामला कोर्ट में पहुंचा और इमराना को न्याय देते हुए अदालत ने ससुर को 10 साल की सजा सुनाई।
2112 में सबसे ज्यादा भयानक और क्रूरतम रेप केस दिल्ली रेप केस निर्भया का माना जाता है जिसने देश को दहला कर रख दिया जिसके चलते संसद को एक कड़ा भी बनाना पड़ा। इसमें छः लोग शामिल थे जिनमें से एक नेआत्महत्या कर ली, चार को फांसी और एक नाबालिक को सुधार गृह भेजा गया।
लेकिन हुआ क्या? आज भी किसी न किसी जगह पर एक घंटे में चार रेप होते हैं; घरों में बाप और दूसरे रक्त संबंधी इन्हीं पाक रिश्तों की आड़ में उसे अपना शिकार बनाते हैं, पुलिस स्टेशनों तक में भी उनसे रेप किया जाता है ! #औरत_सुरक्षित_है_कहां ?
यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को जल्द से जल्द न्याय दिलाने के लिए देश में 275 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं। लेकिन ये कोर्ट भी महिलाओं को कम वक्त में न्याय दिलाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।
- महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े 332 से ज्यादा मामले इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।
- देश भर के उच्च न्यायालयों में ऐसे लंबित मामलों की संख्या 31 हज़ार 386 है।
- देश की निचली अदालतों में 95 हज़ार से ज्यादा महिलाओं को न्याय का इंतज़ार है।