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संविधान का सफर...
part-9
#समता_के_मौलिक_अधिकारों_का_लोकतन्त्र_के_संदर्भ_में_जमीनी_विश्लेषण
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक समता के अधिकार हैं जो सिर्फ राज्य की नज़र में कानून के समक्ष ही हैं । जबकि विषमताओं से भरे हमारे देश में तरह तरह की असमानताएं संविधान निर्माण के समय विद्यमान थी, बहुत बड़ी आवादी शिक्षा, भूमि, संपत्ति, रोटी कपड़ा मकान से वंचित थी, फिर उनके लिए आर्थिक और सामाजिक समानता के मुक्कमल प्रावधान किए बिना , सभी नागरिकों को समान संसाधन मुहैया कराए बिना, समता का अधिकार लोकतंत्र के साथ मजाक है, जनता के साथ छल है......
और आज़ादी के बाद की सरकारों ने संविधान की प्रस्तावना की कल्पनाओं पर भी कोई ठोस कार्य नहीं किये ना ही विषमताओं के कारणों पर अंकुश लगाया,जिसकी परिणित है आज जातीय नफरत, धार्मिक कट्टरता, अमीरी-गरीबी का अंतर बढ़ा है, संविधान-सरकार-लोकतंत्र के होते हुये भी असमानता बढ़ रही है-------

समता या समानता का अधिकार:---
अनुच्छेद 14:- विधि के समक्ष समता-
इसका अर्थ यह है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एक समान कानून बनाएगा तथा उन पर एक समान ढंग से उन्‍हें लागू करेगा ।
लेकिन यहाँ नागरिकों की व्यक्तिगत विषमता को दूर करने का कोई प्रावधान नहीं ।
अनुच्छेद 15:- धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेद-भाव का निषेध-
राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग एवं जन्म-स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा ।
लेकिन संविधान में विषमता के मूल कारण जाति और धर्म को कमजोर करने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया ।
अनुच्छेद 16:- लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता- राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी. अपवाद- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग को केवल सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के रूप में अवसर।
जिस पर ( जातीय असमानता को दूर करने का छोटा सा संवैधानिक प्रयास) समय समय पर मा0 न्यायालय अपनी कैंची चलाता रहा है )
अनुच्छेद 17:- अस्पृश्यता का अंत-
छुआछूत के उन्मूलन के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है ।
मानवीय गरिमा,प्रतिष्ठा के लिए अच्छा प्रयास लेकिन सरकारों ने सही से लागू नहीं कराया, और समय समय पर sc/st एक्ट में फेर बदल और प्रभावहीन करने के षडयंत्र होते रहे ।
अनुच्छेद 18:- उपाधियों का अंत-
सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाए अन्य कोई भी उपाधि राज्य द्वारा प्रदान नहीं की जाएगी । भारत का कोई नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है ।
लोकतंत्र की स्थापना और संविधान लागू होने के बाद राजे-राजवाड़े ख़तम हो गये लेकिन महोदयों के साथ आज भी राजा, रानी, कुँवर, धीमान लगाया जाता है, जो भेदभाव का द्योतक है ।
समता को स्थापित करने की ईमानदार मंशा ना होने के कारण ही आज विषमता और भेदभाव बढ़ा है ।
जिसकी पुष्टि इस पोस्ट की प्रतीकात्मक तस्वीरें कर रही हैं ।
Mr Girish Anjan