Kamaljeet Jaswal's Album: Wall Photos

Photo 274 of 1,789 in Wall Photos

बौद्ध पद्धति से विवाह ...

न फेरे, न हवन, न सिंदूर, न देववाणी में मंत्र बल्कि आम जन की भाषा में प्रतिज्ञापन, नि:शुल्क साथ में प्रमाण पत्र

1.फेरे क्यों नहीं?

सात फेरों का रहस्य का खुलासा करते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं। आर्यों में एक ऐसा वर्ग था जिन्हें देव कहा जाता था जो पद और पराक्रम में श्रेष्ठ माने जाते थे। ये देव आर्य स्त्रियों के साथ पूर्वस्वादन को अपना आदेशात्मक अधिकार समझने लगे थे। स्त्री का उस समय तक विवाह नहीं हो सकता था जब तक की वह पूर्व स्वादन के अधिकार से मुक्त नहीं कर दी जाती थी। तकनीक भाषा में से अवदान कहते हैं। वधु का भाई कहता था कि यह कन्या (उसकी बहन) अग्नि के माध्यम से आर्यमान को अवदान अर्पित करती है। आर्यमान इस पर अपना अधिकार छोड़ दें और वर के अधिकार को बाधित ना करें। इस अवदान के पश्चात अग्नि की प्रदक्षिणा होती है जो सप्तपदी कहलाती है। इसके पश्चात विवाह संबंध वैध और उत्तम माना जाता है। सप्तपदी इस बात का प्रतीक है कि देव ने कन्या पर से अपना पूर्वाधिकार त्याग दिया है और अवदान से संतुष्ट है। यदि देव वर और कन्या को सात पग चलने देते हैं तो यह समझा जाता था कि देवों को मुआवजा स्वीकार है और उसका अधिकार समाप्त हो गया है और कन्या दूसरों की पत्नी बन सकती है। सप्तपदी प्रत्येक विवाह में आवश्यक थी। यह इस बात का द्योतक है कि ऐसी अनैतिकता देवों और आर्यों में किस हद तक मौजूद थी।
(बाबा साहब डॉ अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड 8 पृष्ठ 303-304, खंड 7 पृष्ठ 38)

2.सिंदूर क्यों नहीं?

मुगल आक्रमणकारी भी अपने साथ औरतें लेकर नहीं आए। वह विजेता थे ऐसी दशा में उन्होंने हिंदु युवतियों को अपनी हवस का शिकार बनाया। आर्य ब्राह्मणों ने तत्कालीन उत्पन्न परिस्थिति का सामना करने के लिए कम उम्र की बालिकाओं के माथे पर विवाह के प्रतीक चिह्न के रूप में सिंदूर को स्थान दिया। इस प्रकार बाल विवाह प्रथा का जन्म हुआ। मुगल किसी विवाहित स्त्री के साथ छेड़खानी नहीं करते थे। उन्हें जब यह पता चल गया कि जिस युवती के माथे पर सिंदूर लगा है वह विवाहिता है तो वह उसे बिल्कुल स्पर्श नहीं करते थे। आज जब भारत स्वतंत्र हो चुका है हमारे सामने ना अंग्रेज है ना आक्रमणकारी मुगल फिर इस सिंदूर प्रथा का क्या औचित्य?

3.हवन क्यों नहीं?

खाने-पीने की चीजों को जलाना कहाँ का औचित्य है। यह सभी जानते हैं।

सत्यशोधक समाज द्वारा प्रतिपादित विवाह पद्धति

राष्ट्रपिता फूले ने 1876 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। सत्यशोधक समाज के माध्यम से ज्योतिराव फूले ने ऐसी विवाह पद्धति का निर्माण किया जिसमें कम से कम समय और पैसे में विवाह संपन्न हो। क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान था कि उनका मूलनिवासी बहुजन समाज गरीबी से लाचार है। साक्षी समाज के लोग अग्नि नहीं, ना मंत्र, ना देववाणी की। यहाँ तो आमजन की भाषा में वर-वधू प्रतिज्ञा पत्र पढ़ते हैं।

सत्यशोधक समाज के माध्यम से 25.9.1873 को पूणे के सीताराम और राधाताई व दूसरा विवाह 7.5.1876 को पुणे में ही ज्ञानोबा कृष्णा और काशीबाई के बीच हुआ। ब्राह्मणों को पता चला तो खलबली मच गई। ब्राह्मणों ने घोषणा कर दी कि सत्यशोधक समाज धर्म और देशद्रोही है। ब्राह्मण वर वधु के माँ-बाप को उनके कुल के नाश का भय दिखाने लगे। गुंडों से धमकियां दिलवाई और गुंडों ने चेतावनी दी कि यदि वह विवाह सत्यशोधक समाज के नियम के अनुसार हुआ तो उन्हें पूरे गांव से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। कृष्णा डर के मारे ज्योतिराव के पास गया और ज्योतिराव फुले ने विवाह अपने घर पर संपन्न कराया।
पूना के ब्राह्मण पुरोहितों ने चंदा इकट्ठा करके मुकदमा कर दिया। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि दूसरी जातियों के लोग ब्राह्मण पुरोहितों के बिना विवाह कर सकते हैं। इस कानूनी निर्णय से महाराष्ट्र को नई धार्मिक दृष्टि मिली और धर्म के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा की जा रही लूटपाट बंद होने लगी।

बौद्ध विवाह पद्धति

बौद्धिस्ट विवाह संस्कार में किसी धम्मचारी द्वारा वर वधु को
त्रिशरण और पंचशील ग्रहण कराया जाता है,इस पद्धति से
विवाह में वर-वधू को प्रमाण पत्र भी दिया जाता है प्रतिज्ञापन के तुरंत बाद वर-वधू एक दूसरे के गले में फूलों की माला डालते हैं उपस्थित जनसमूह वर-वधू पर फूलों की वर्षा करता है,और मंगल कामनाओं के साथ बिना किसी ढोंग और कर्मकांड के शादी संपन्न होती है...

इन विदेशी आर्यों द्वारा हमारे मूलनिवासी समाज पर कितने अत्याचार किये हैं और कर रहे हैं ये बात जग जाहिर है और हम लोग जानकर भी अंजान बने हैं .... .....
*जानिए परम्परा और उनका सच*----------- (पूरा मैसेज जरूर पढे)