अजब खेल है-
होलिका जलाओ,नारी बचाओ?....
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गुड़ खाओ और गुलगुले से परहेज?हर साल,हर गांव में पूरे जश्न के साथ महीनों की तैयारी करके होलिका दहन के नाम पर एक स्त्री को जलाने का उपक्रम करो और मंच से नारी बचाओ,नारी सशक्तिकरण,नारी शिक्षा,नारी सम्मान जैसे थोथे प्रवचन करो,अजीब है कि नही यह सब कुछ?
भारत मे दहेज हत्या या अन्य तमाम कारणों से पूरी दुनिया में सर्वाधिक स्त्रियां जलाई जाती हैं और अब कुछ लोग जलाने का अत्याधुनिक तरीका एसिड अटैक भी अख्तियार कर लिए हैं।सवाल उठता है कि औरतों को दुनिया के दूसरे देशों की तरह गोली मार करके क्यो नही रास्ते से हटाया जाता है,क्यो जलाने को ही भारतीय समाज प्रमुखता देता है?क्यो मर्द नही जलाए जाते हैं?इसका मेरी समझ से कारण यही होलिका दहन का पौराणिक मिथक है जो हमारे मन-मस्तिष्क में बचपन से ही घर कर जाता है कि स्त्री जश्न पूर्वक जलाने की वस्तु है।
गांव हो या शहर हर हिन्दू का बच्चा होली के एक दिन पूर्व फ्री रहता है प्रतीकात्मक रूप में एक औरत को जश्न पूर्वक जलाने के लिए।गांव में बच्चे शाम से ही "होलिका दहन" हेतु "पँचगोईठी" के नाम पर लकड़ी व जलाने के अन्य उपकरण घर-घर घूम-घूम करके मांगते हैं।बच्चे यह लकड़ी मांगने का उपक्रम करते हुए होलिका को भद्दी-भद्दी गालियां भी देते हैं।इस तरह से बचपन मे ही हमारे संस्कार में स्त्री जलाने की चीज है,गलियाने की चीज है जैसी धारणाएं भर दी जाती हैं और फिर हम जवान होकर अपनी पत्नी को थोड़ी भी अनबन होने पर पेट्रोल डाल जला करके अपने पुरुषार्थ को तुष्ट कर डालते हैं।अब तो एकतरफा प्रेम में असफल होने पर भी लड़कियों को हम मर्द जला डालने या तेजाब से नहला देने में संकोच नही कर रहे हैं।अजीब हालात है इस हिन्दू मर्द मेंटालिटी का जिसमे स्त्री या तो भोग की बस्तु है या जला कर मार डालने की।
एक कुप्रथा "सतीप्रथा" हमारे देश की सम्माननीय प्रथा है।यह सतीप्रथा दुनिया मे कहीं नही है पर यहाँ स्त्री को सती बना डालना गर्व का विषय है।मेरे गांव में भी एक कथित "सती माई" का स्थान यादव बस्ती में है जहां एक छोटा सा मन्दिर भी बन गया है।क्या बात है कि मर्द के सतीत्व का परीक्षण नही होगा जबकि किसी भी स्त्री का सतीत्व तभी भंग होगा जब मर्द अपना पुरुषार्थ दिखायेगा परन्तु मर्द कुछ भी करे उस पर कोई सवाल नही लेकिन स्त्री की वर्जिनिटी जरूर जांची जाएगी।यदि किसी स्त्री का पति मर जाए तो वह स्त्री पति के साथ जलकर सती बनेगी और इसके लिए बाकायदे ढोल-मजीरा बजेगा,कीर्तन होगा लेकिन कोई स्त्री मर जाय तो उसका पति सती नही होगा बल्कि दूसरी शादी कर मौज करेगा,भोग करेगा।यह भी कोई इंतजाम है साहब कि हरदम स्त्री ही जले,चाहे वह होलिका दहन के नाम पर या सती के नाम पर या एकतरफा प्यार में पागलपन के नाम पर?
आखिर होलिका को क्यो हजारो वर्ष से हर साल जला रहे हैं हम?क्या यह भारतीय नारी समाज को भयाक्रांत करने का एक आयोजन नही है?क्या यह मर्दवादी सोच का परिचायक नही है?क्या यह इंडियन आईपीसी के मुताबिक क्रिमिनल वाकया नही है?क्या यह हमारे अंदर स्त्री जलाने की बस्तु है,ऐसा मनोविकार भरने वाला कार्यक्रम नही है?क्या यह सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा नही है जिसमे हर साल एक औरत प्रतीक रूप में जलाई व गलियाई जा रही है?
बन्द करो यह आयोजन भाइयो! क्योकि होलिका को निर्दोष जलाने के पीछे यह भी एक कारण है कि आप अपने अंदर के अंधविश्वास को बनाये रखना चाहते है,तर्क से दूर रहना चाहते है,विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को मानना नही चाहते हैं क्योंकि पौराणिक व्याख्यानो के मुताबिक होलिका और उसके भाई ने यही न कहा था कि कोई भगवान नही है,भाग्य नही है,स्वर्ग-नरक नही है,किसी ब्रम्ह भोज या ब्रम्ह आयोजन की कोई जरूरत नही है,तभी तो हिरणकश्यप को हरिद्रोही कहा गया जो उसके शहर तक को पुराणों में हरिद्रोही (हरदोई) के रूप में दर्ज कर दिया गया।
हिरणकश्यप और होलिका को जाने-अनजाने हम राक्षस का स्वरूप दिल-दिमाग मे रखकर इनसे नफरत करते हुए इनकी मौत पर खुश हो खूब सरररर करते है लेकिन शायद यह हमें पता नही है कि इस देश के मूल निवासियों के महानायक कृष्ण जिन्हें आर्यो ने ऋग्वेद में असुर या राक्षस कहा है के पोते अनिरुद्ध से हिरणकश्यप के परपोते बाणासुर की बेटी उषा से शादी हुई थी।कृष्ण और हिरणकश्यप इस तरीके से वेद व पुराणों के मुताबिक असुर कुंल के व एक दूसरे के रिश्तेदार/समधी हुए।इस तरह से हम जाने-अनजाने अपने ही पुरखो की हत्या पर ताली बजाने वाले लायक सन्तान बन जोगीरा गा रहे हैं।
होलिका दहन हमारे सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है।स्त्री सम्मान को चोटिल व आहत करने वाला आयोजन है,पर्यावरण प्रदूषित करने वाला एक अवैज्ञानिक कार्य है।आइए कम से कम हम वंचित समाज के लोग यही संकल्प ले लें कि हम अपने पूर्वज व हरिद्रोही हिरणकश्यप व उनकी बहन होलिका को जलाने व इनके वध पर आयोजित होने वाले जश्न में शरीक नही होंगे।
Chander B Yadav