अंग्रेजो से आरक्षण लेनेवाले, 2018 में पिछड़े वर्गों के संवैधानिक आरक्षण के विरोधी क्यों ? जानिए इतिहास.
उच्च जातियों ने सर ह्युम के नेतृत्व में 1985 में कोंग्रेस नाम से एक संगठन प्रारंभ किया और बिटिश कालीन भारत के प्रशासन में आरक्षण की मांग भारतवासियों के लिए उठानी शुरू की. अंग्रेज शासक कुछ कुछ आरक्षण देते गए. जिस का 90% से ज्यादा हिस्सा एक ही ब्राह्मण जाति ने उठाना शुरू किया. ब्रिटिश शासन में जातिवाद चलाकर ब्राह्मणों ने शिक्षा और कार्यपालिका में अपना एकाधिकार जमाना शुरू किया था. इस के सम्बन्ध में जानेमाने समाज विज्ञानी रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक “भारत की राजनीति में जाति” बड़ा खुलासा किया है. उन्हों ने लिखा है, - “क्योकि ब्राह्मण उच्च शिक्षा संस्थानों तथा सेवाओ में प्रवेश कर चुके थे.इस करण उन्हों ने सभी जगह अपने समूह रच लिए थे जिस में गैर ब्राह्मणों को बहार रखा गया था. 1892 तथा 1904 के बिच भारतीय सिविल सर्विस में सफलता पानेवाले 16 प्रत्याशियों में से 15 ब्राह्मण थे. 1944 में 128 स्थायी कलेक्टरों में से 93 ब्राह्मण थे. 1944 तक विश्व विद्यालयों से निकले 650 स्नातको में से 452 ब्राह्मण थे.” ओबीसी के ‘काका कालेलकर बेकवर्ड कमीशन’ - 1955 के अनुसार आरक्षण होते हुवे भी, 1953 में क्लास - 1 के 5751 पद पर एससी 20 यानि 0.35 % और एसटी 6 यानि 0.10 % थे. क्लास - 2 के 5663 पद पर एससी 50 यानि 0.88 % और एसटी 18 यानि 0.32 % थे.. कल्पना कीजिये कि बिना आरक्षण उस समय के 54% से ज्यादा ओबीसी समुदाय का क्लास - 1 और क्लास - 2 में क्या वजूद होगा..? भारत में डायवर्सिटी पालिसी के जानेमाने विचारक और लेखक एच.एल. दुसाध के एक लेख में आधुनिक भारत में आरक्षण के इतिहास की जानकारी उपलब्ध होती है..
“दशकों से आरक्षण भारत का सबसे ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है, जिसे लेकर समय-समय पर देश का माहौल उतप्त हो जाता है. ऐसा नहीं कि सिर्फ यह कुछ दशकों से हो रहा है: आधुनिक भारत में ऐसे हालात की सृष्टि भारत के स्वाधीनता संग्राम से ही शुरू होती है. स्वतंत्रता संग्राम को लेकर भावुक होने वाले अधिकांश लोगों को शायद पता नहीं कि भारत में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत आरक्षण को लेकर होती है. 1885 में अंग्रेज अक्टोवियन ह्युम के नेतृत्व में जिस कांग्रेस की शुरुआत होती है, दरअसल वह भारतीय एलिट (उच्च जातियों) वर्ग के लिए छोटी-छोटी सुविधाओं की मांग के लिए थी, जो धीरे-धीरे सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग में बदल गयी. भारतीय एलिट क्लास की मांग पर अंग्रेजों ने 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी के 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किये. एक बार आरक्षण का स्वाद चखने के बाद कांग्रेस ने भारतीयों के लिए पीडब्ल्यूडी,रेलवे, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर आरक्षण की मांग उठाना शुरू किया. अंग्रेजों द्वारा इन क्षेत्रों में आरक्षण की मांग ठुकराए जाने के बाद कांग्रेस ने 1900 में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कड़ी निंदा प्रस्ताव लाया. बहुतों को लग सकता है कि दलितों द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए उठाई जा रही मांग, नई परिघटना है. नहीं! तब भारतीयों के लिए रिजर्वेशन की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा स्थापित निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी आरक्षण की मांग उठाया था. हिंदुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर , वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जांय . तब योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं . कहा जा सकता कि शासन-प्रशासन , उद्योग-व्यापार में संभ्रांत भारतीयों को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर शुरू हुआ कांग्रेस का ‘आरक्षण बढाओ आन्दोलन’ परवर्तीकाल में स्वाधीनता आन्दोलन का रूप ले लिया. बहरहाल उच्च वर्ण हिन्दुओं के लिए आरक्षण की शुरुआत अगर 1892 में हुई तो हिन्दुओं की दबी-कुचली जाति शुद्रातिशुद्रों के आरक्षण की शुरुआत 26 जुलाई, 1902 से कोल्हापुर रियासत से होती है , जिसे देने का श्रेय कुर्मी जाति में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशधर छत्रपति शाहूजी महाराज को जाता है. लेकिन दस्तावेजों में 1892 को भारत में आरक्षण की शुरुआत का वर्ष भले ही चिन्हित किया गया है, वास्तव में इसकी शुरुआत हिंदुत्व के दर्शन के विकास के साथ-साथ वैदिक भारत अर्थात आज से साढ़े तीन हजार पूर्व तब होती है, जब वर्ण-व्यवस्था ने आकार लेना शुरू किया.” - एच.एल. दुसाध.