राजा राम मोहन रॉय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के बाद सवर्णों में क्यों कोई समाजसेवी पैदा ही नहीं हुआ? अब तो 21 वीं सदी चल रही है बहुत कुछ बदलाव हुए, शिक्षा का स्तर भी पहले से बहुत बेहतर है फिर क्यों कोई सवर्ण व्यक्ति हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि वह कुछ बदलाव किया जाय? महात्मा गांधी जी ने जरूर कुछ पहल की मगर कोई भी महात्मा हवा के झोंके की तरह होते हैं जो धूल तो उड़ाते हैं मगर ठोस कुछ नहीं कर पाते हैं ऐसा बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते थे जो सच के बहुत करीब है।
आज देश के अंदर 10 लाख से ऊपर एनजीओ हैं जिनका मकसद किसी न किसी तरह दबित, शोषित, वंचित के हक की लड़ाई लड़ना है, इससे दोगुनी संख्या बाबा और बाबीयों कि हैं उनका भी मकसद एकता, बन्धुता और समानता हासिल करना है फिर समाजसेवी, सरकारें, नियम, कानून और तमाम संस्था, व्यवस्था इसी उद्देश्य से बने हुए मगर फिर भी कुछ इन तमाम चीजों में और जमीनी हकीकत में फर्क बना हुआ है।
सवर्ण समुदाय के हाथ मे इस देश के बदलाव करने के तमाम अधिकार सुरक्षित है। राजा राम मोहन रॉय जी ने सती प्रथा के खात्मे के लिए जिस साहस का परिचय दिया उस साहस को शायद ही आज भी कोई व्यक्ति कर सके। मामला जब धार्मिक परम्पराओं और लोगों की मान्यताओं से जुड़ा हो तो बदलाव करना जान हथेली पर रखना जैसा है। अभी बहुत कुछ करना बाकि है पर उसके लिए कोई व्यक्ति साहस जुटा सके इसकी उम्मीद फिलहाल नहीं दिख रही है। आर पी विशाल।।