मुजफ्फपुर के सौ बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन है?
गोरखपुर के उदाहरण से समझ सकते हैं। वही सबकुछ कमोबेश मुजफ्फरपुर में दोहराया गया, जो गोरखपुर में ( अगस्त2018 में) हुआ था।
(उस समय लिखा यह लेख मुजफ्फरपुर के बच्चों की मौत के कारणों को समझने में थोड़ी मदद कर सकता है। यह लेख देश-विदेश पत्रिका और समयांतर में प्रकाशित हुआ था।)
कुछ वर्षों के भीतर गोरखपुर दो बार दुनिया भर में सुर्खियां बना था। पहली बार तब जब अप्रैल में मुसलमानों के प्रति घृणा को ही केंद्र में रखकर राजनीति करने वाले योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। देश-विदेश के लोग भौचक्का थे, अरे ये क्या हो गया, कुछ उसी तरह जैसे गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के कर्ता-धर्ता नरेन्द्र दामोदर मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर। दूसरी बार गोरखपुर दुनिया भर में तब खबर बना, जब 60 मासूमों की मौत की खबर आई। कलपती मातायें, बिलखते परिजनों, मातम में डूबे सगे-संबंधियों की ह्रदयविदारक तस्वीरें दुनिया भर में पहुंची। देश और दुनिया यह सुनकर हतप्रभ रह गई कि इन 60 मासूमों में कुछ की मौत का कारण आक्सीजन की आपूर्ति बन्द होना था। कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहा था, कुछ चंद लाख रूपये के चलते माताओं की गोदें सूनी हुईं। गोरखपुर और आस-पास के इलाकों में हाहाकार मच गया। सभी आवाक और सन्न। किसी का दिल मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था कि मासूमों की आक्सीजन के बिना तड़प-तड़प कर मौत योगी के मुख्यमंत्री रहते हुई है। खासकर वे लोग भी भौचक थे, जो योगी को हिंदू ह्रदय-सम्राट मानते हैं और उनमें से बहुत सारे यह नारा लगाते हैं कि गोरखपुर में रहना है, तो योगी-योगी कहना है। यह सब कुछ तब हुआ, जब 10 अगस्त को मौतों का सिलसिला शुरू होने के एक दिन पहले ही योगी गोरखपुर मेडिकल कॉलेज गए थे, और मेडिकल कॉलेज के प्रबंध-तंत्र के साथ बैठक की थी। ध्यान रहे कि योगी पिछले 19 वर्षों से गोरखपुर के न केवल सांसद हैं, बल्कि उनकी स्थिति पुराने जमाने के छत्रपों की है। गोरखपुर और आस-पास के क्षेत्रों की राजनीतिक, सामाजिक, सांकृतिक और धार्मिक जीवन में उनकी तूती बोलती है। कहा जाता है कि वहां का प्रशासन भी उनके रहमो-करम पर निर्भर रहता है। योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट के पहले उनके मामा अवैद्यनाथ यहां के लंबे समय तक सासंद थे।
मासूमों के नरसंहार (कैलाश सत्यार्थी) के खून के फौव्वारों से योगी का गेरूआ वस्त्र सन गया और तथाकथित हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों पर खून के छीटें पड़े। उसके बाद योगी और उसके चाहनेवाले इन खून की छीटों को धोने में लग गए। सबसे पहले योगी के बचाव में उनके एक मंत्री सिद्धार्धनाथ सिंह उतरे, जो पहले भाजपा का राष्ट्रीय सचिव और प्रवक्ता भी रह चुके हैं। उसने पिछले वर्षों के आंकड़े देकर यह साबित किया कि अगस्त में बच्चों की मौत होती ही है। उसकी इस बेहयाई और घोर अमानवीय वक्तव्य पर भाजपा समर्थकों ने भी दांतों तले अंगुली दबा ली, और अपना सिर शर्म से झुका लिया। बात यहीं नहीं रूकी, बेहयाई और अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए भाजपा के खेवनहार अमित शाह ने यहाँ तक कह दिया कि इतने बड़े देश में ऐसे हादसे होते रहते हैं, और यह पहली बार नहीं हुआ है। बात-बात पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री इतनी बड़ी घटना पर मौन साधे रहे, आखिरकार लाल किले से संवदेना के दो शब्द बोले।
फिर बारी आई स्वंय योगी की। वह अपने बचाव में उतरे। पहले तो भोंकार पाड़कर रोये, ऐसा हमारे प्रधानमंत्री भी करते रहते हैं। याद रहे रोहित वेमुला की मौत की चर्चा करते हुए दलितों के लिए रो पड़े थे। यह दीगर बात है कि दुनिया यह जानती है कि वह और उसकी हिंदुत्ववादी सरकार दलितों की कितनी हितैषी है और कैसे गाहे-बगाहे ऊना और शब्बीरपुर (सहारनपुर) जैसी करतूते ये लोग अंजाम देते रहते हैं । खैर बात योगी के रोने की हो रही थी। रोने के बाद वह चिघाड़े, मासूम बच्चों की मौत के गुनाहगारों को बख्शा नहीं जायेगा। उसकी चिघाड़ हर संवेदनशील, तार्किक और तथ्यों से परिचित आदमी को ऐसे लगी जैसे हत्यारा खुद ही चिल्ला रहा हो कि इस हत्या का बदला लिया जायेगा। यह इस देश में कोई नई बात नहीं है, बलात्कारी बलात्कर के खात्मे की, भ्रष्टाचारी भ्रष्टाचार के खात्मे की, अपराधी अपराध के खात्मे, जातिवादी जाति के खात्मे और सचमुच के देश द्रोही देश प्रेम की बातें करते रहते हैं।
योगी अपने को बचाने के लिए तरह-तरह की जुगत करते रहे और कर रहे हैं। पहले तो इसी बात से से इंकार किया किया कि आक्सीजन की आपूर्ति बाधित हुई थी, फिर सारा दोष प्राचार्य और उनकी बीबी पर मढ़ने की कोशिश की। फिर यह बात सामने आने पर कि राज्य सरकार को आक्सीजन के लिए धन मुहैया कराने के लिए 3 बार पत्र लिखे गए। 3 जुलाई, 19 जुलाई और 1 अगस्त को। फिर योगी ने उत्तर प्रदेश के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के सिर ठीकरा फोड़ा। कुछ को निलंबित किया, एफ.आई.आर. का आदेश जारी किया। इसी बीच योगी और उनके गिरोह ने अपना आजमाया नुस्खा मुस्लिम कनेक्शन भी तलाशा। इसके लिए उन्हें डॉ. काफिल को लक्ष्य बनाया। योगी को बचाने के लिए विपक्ष की साजिश के नुस्खे को आजमाया गया। आक्सीजन आपूर्तिकर्ता को अखिलेश का करीबी ठहराया गया।
खुद को बेदाग ठहराने की सारी बेहयाई भरे कुतर्कों के बावजूद भी तथ्य चीख-चीख कर चिल्ला रहे हैं कि न केवल अगस्त महीनों की मौतें बल्कि साल दर साल होने वाली मासूमों की मौतों के यदि कोई व्यक्ति सर्वाधिक जिम्मेदार है,तो वह योगी हैं, अभी फिलहाल मुख्यमंत्री की हैसियत से, 19 वर्षों से गोरखपुर के सांसद की हैसियत से, इंसेफेलाइटिस के नाम पर भी अपनी राजनीतिक छवि चमकाने वाले नेता के तौर पर, पूर्वांचल की बदहाली और विकास के नाम पर राजनीति करने वाले नेता के तौर पर ।
आइये एक-एक करके तथ्यात्यक तौर पर योगी के पाखण्डपूर्ण रूदन और पूर्वांचल के बच्चों से उनके भावनात्मक लगाव की असलियत की पड़ताल की जाए। बच्चों की मौत पर योगी के घड़ियाली आंसू को सबने देखा और उनकी इस दंभ भरी घोषणा को सबने सुना कि “मैंने इस मुद्दे (इंसेफेलाइटिस) को संसद से सड़क तक उठाया है। कोई भी मुझसे ज्यादा इस दर्द को नहीं समझ सकता है”। लेकिन योगी के रूदन और उनकी बात की पोल मुख्यमंत्री के रूप में लिया उनका फैसला लिया खोल देता है। मुख्यमंत्री योगी और उनके मंत्रिमंडल ने गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के बजट को आधा कर दिया। 2016-17 (सपा सरकार) में गोरखपुर में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के लिए 15.5 करोड रुपया आवंटित किया गया था, इस बार भाजपा सरकार ने इस आवंटन को आधा करके 7.8 करोड़ कर दिया। इतना ही नहीं चिकित्सकीय उपकरणों की खरीदारी के मद में आवंटित धनराशि को 3 करोड़ से घटाकर 75 लाख कर दिया। क्या यह केवल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के संदर्भ में हुआ। नहीं पूरे प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों के बजट को योगी सरकार ने आधा कर दिया। ध्यान रहे कि मेडिकल कॉलेजों को बजटीय आवंटन चिकित्सा शिक्षा के मद के तहत होता है। योगी सरकार ने इस वर्ष चिकित्सा क्षिक्षा के आवंटन में 50 प्रतिशत की कटौती कर दिया। 2016-17 में इस मद में कुल आवंटन 2 हजार 344 करोड़ रूपये हुआ था। इस बार (2017-18) कुल आवंटन 1 हजार 148 करोड़ रूपये का हुआ है। हम सभी जानते हैं कि प्रदेश के मेडिकल कॉलेज सरकारी चिकित्सा की रीढ़ है, उस रीढ़ को ही तोड़ने की प्रक्रिया योगी सरकार ने अपने पहले बजट में ही शुरू कर दिया। याद रहे यही काम मोदी सरकार ने अपने पहले बजट में किया था।
हम यहाँ सिर्फ गोरखपुर मेडिकल के बारे में बात करते हैं, उसमें खास करके इंसेफेलाइटिस के शिकार बच्चों की बात करते हैं। हल सभी को पता है कि 300 किलोमीटर के घेरे में इंसेफेलाइटिस के शिकार बच्चों के इलाज का यह एकमात्र केंद्र गोरखपुर मेडिकल कॉलेज है। न केवल पूर्वांचल बल्कि बिहार के कुछ जिलों और पड़ोसी देश नेपाल से भी बच्चे यहां आते हैं। 12 अगस्त को केंद्रीय चिकित्सा टीम वहाँ गई थी। उस टीम ने पहले से जगजाहिर तथ्यों की पुष्टी की। इस टीम ने बताया कि गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में उसकी क्षमता से 10 गुना मरीज आते हैं। प्रतिदिन 2 हजार से लेकर 2 हजार 500 की संख्या में मरीज आते हैं। यहां कुल 2 सौ बेड हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों की बड़े पैमाने पर कमी है। इसे सिर्फ इंसेपेलाइटिस वार्ड के संदर्भ में देखें तो आईसीयू की एक शिफ्ट में 4 वरिष्ठ डाक्टरों पर 400 मरीजों की जिम्मेदारी है, अर्थात् हर डॉक्टर पर 100 मरीज। जबकि मानक के अनुसार हर एक डाक्टर केवल 4 से 6 मरीजों की जिम्मेदारी ही पूरी कर सकता है। इस वार्ड की 28 नर्सों में से मात्र 3 नर्सें अपने काम के लिए प्रशिक्षित हैं। इस वार्ड की स्थिति यह है कि कुल भर्ती होने वाले बच्चों में से आधे 48 घंटे के अन्दर मौत के शिकार हो जाते हैं। कोई भी अंदाज लगा सकता है कि कितनी गंभीर हालातों में बच्चे यहाँ आते हैं। 1978 के बाद से अब तक यहाँ पर इंसेफेलाइटिस से 25 हजार बच्चों की मौत हो चुकी है। कितने विकलांग होते है,उसकी की तो कोई गणना ही नहीं है। साल-दर-साल मौतों का सिललिसा जारी है। हर साल हजारों बच्चों की मौत होती है।
योगी कहते रहते थे कि उत्तर प्रदेश की सरकार की लापरवाही और पर्याप्त धन के आवंटन की कमी के चलते मौतों का सिलसिला रूक नहीं रहा है, इंसेफेलाइटिस पर प्रभावी नियंत्रण नहीं लग पा रहा। हमारी सरकार (भाजपा) बन जाये, तो हम इस समस्या का समाधान करके दिखा देंगे। न केवल भाजपा की सरकार बनी, योगी मुख्यमंत्री भी बन गए, पहला ही काम उन्होंने पूर्वांचल के इंसेफेलाटिस के शिकार बच्चों के लिए क्या किया? गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के लिए क्या किया? उसका बजट आधा कर दिया, यही पूर्वांचल के बच्चों और मेडिकल कॉलेज के लिए उनकी सबसे बड़ी सौगात थी। फिर हम दुहरा रहे हैं, योगी के शब्दों में सपा की जनविरोधी और पूर्वांचल की उपेक्षा करने वाली सरकार ने प्रदेश के कुल 14 मेडिकल कॉलेजों के लिए 2 हजार 344 करोड़ का आवंटन किया था, जिसमें गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के लिए आवंटन 15.9 करोड़ था। पुर्वांचल के मसीहा की जनपक्षधर सरकार ने, न केवल कुल बजट को आधा कर दिया, बल्कि पूर्वांचल के इंसेफेलाइटिस के शिकार बच्चों के एकमात्र उम्मीद के केंद्र गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के बजट को 15.9 करोड़ से घटा कर 7.8 करोड़ कर दिया। कोई भी समझ सकता है कि जब बजट आधा हो गया, तो पहले से बदत्तर स्थिति का शिकार मेडिकल कॉलेज का क्या होगा? वहां सैकडों किलोमीटर से इलाज के लिए आने वाले बच्चों का क्या होगा? बिना धन के, बिना डाक्टरों के, बिना नर्सों के, बिना चिकित्सीय उपकरणों के कैसे उनका इलाज होगा, कैसे उन्हें मौत के मुंह में जाने से बचाया जायेगा? किसी भी आम आदमी ने शायद ही कल्पना की हो कि गेरूआ वस्त्रधारी अजय सिंह बिष्ठ, जो योगी का चोला धारण किए हुए हैं, वह इतना निर्मम, इतना क्रूर, बच्चों के प्रति हो सकते हैं? उत्तर प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों के लिए बजटीय आवंटन तो यही बता रहा है? आक्सीजन की सप्लाई रूकना तो यही बता रहा है?
उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी, योगी मुख्यमंत्री बने, उन्होंने इंसेफेलाइटिस के पूर्वांचल के एकमात्र इलाज के केंद्र गोरखपुर मेडिकल कॉलजे के लिए क्या किया यह तो हम देख चुके, अब जरा 19 वर्षों तक सांसद रहते योगी ने पूर्वांचल विशेषकर बच्चों, उसमें इंसेफेलाइटिस के शिकार बच्चों के लिए योगी ने क्या किया है, उसके परिणाम क्या आये हैं, इसका भी तथ्यात्मक जायजा ले लिया जाए। हम यहाँ उनके मामा के कार्यकाल को छोड़ रहे हैं। हम इन तथ्यों को सिर्फ गोरखपुर के संदर्भ में ही लेंगे। योगी 1998 में ही गोरखपुर के सांसद बन गए थे, उनके मामा ने गोरक्षपीठाधीश्वर की उपाधि की तरह ही गोरखपुर की सांसदी भी उनको सौंपी थी। 1998 में योगी जब सांसद बने, तो अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार थी। मध्यावधि चुनाव हुआ तो भी अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में ही सरकार बनी, जो 2004 तक रही। फिर 10 वर्षों तक भाजपा सत्ता से बाहर रही। 2014 से भाजपा की पूर्ण बुहमत की सरकार है। यानी योगी आदित्यनाथ की सांसदी के 19 वर्षों में 9 वर्ष ऐसे रहे हैं, जब भाजपा की सरकार थी। क्या किया गोरखपुर के लिए योगी ने, विशेषकर बच्चों के संदर्भ में? ध्यान रहे कि शहर का मेयर भी ज्यादात्तर समय भाजपा का ही था। शहर विधायक भाजपा के। आस-पास के सांसद-विधायक भी भाजपा के, कई सारे तो योगी के लग्गू-भग्गू ही थे।
यह सच है कि इंसेफेलाइटिस या दिमागी बुखार का कारण वायरस है, जो मच्छर के काटने या दूषित पानी पीने या खाना खाने (एन्ट्रो वायरस) से बच्चों के शरीर में प्रवेश करते हैं और बच्चों को संक्रमण का शिकार बना देते हैं। लेकिन सभी बच्चे इसके शिकार नहीं बनते हैं। सारे आंकडे बताते हैं कि इस वायरस के शिकार 70 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। इस तथ्य की पुष्टि इससे भी होती है कि ज्यादात्तर बच्चे गांवों के गरीब परिवारों के हैं, उनकी सामाजिक संरचना देखी जाए, तो दलित और पिछडे वर्गों के हैं। गोरखपुर दुनिया के उन 20 देशों में है जहां शिशु मृत्यु दर (1000 पैदा होने वाले बच्चों में से कितने बच्चों की 1 वर्ष के भीतर मृत्यु हो जाती है) सर्वाधिक है। यहां प्रति वर्ष पैदा होने वाले 1000 शिशुओं में से 62 की 1 वर्ष के भीतर ही मृत्यु हो जाती है। इस मामले में गोरखपुर की स्थिति अफ्रीकी देश दक्षिणी सूडान से मेल खाती है, जहाँ प्रति 1000 शिशुओं में 62.90 प्रतिशत है। युद्धग्रस्त और अराजकता का शिकार देश अफगानिस्तान की स्थिति ही गोरखपुर से बदत्तर है, वहां 1000 में से 112 शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। भारत में शिशु मृत्यु दर की औसत 38 है। 5 वर्षों के बच्चों की मृत्यु दर के मामले में भी गोरखपुर की स्थिति बद से बदत्तर है। यहां प्रति वर्ष 1000 बच्चों में से 76 बच्चों की मृत्यु 5 वर्ष पूरा करने से पहले ही हो जाती है, इस मामले में गोरखपुर की स्थिति उत्तर प्रदेश के औसत से भी बदत्तर है। उत्तर प्रदेश में यह औसत 62 का है, जबकि राष्ट्रीय औसत 50 का है। कुपोषण के मामले में भी गोरखपुर की स्थिति बदत्तर है। 35 प्रतिशत बच्चे कम वचन के शिकार हैं, 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। दुनिया भर में यह स्थापित हो चुका है कि यदि शिशुओं को मौत और बीमारियों से बचाना चाहते है तो उनका संपूर्ण टीकाकरण आवश्यक है, जिसे मैनडेटरी इम्युनाइजेशन साइकिल कहते हैं। इस मामले में गोरखपुर न केवल देश में बल्कि दुनिया में सबसे बदत्तर स्थानों में से एक है। 3 बच्चों में से केवल 1 बच्चे का टीकाकरण हुआ है यानी दो तिहाई बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। आप कल्पना करें, जहां बच्चों का टीकारकरण ही नहीं हुआ है, वहां उनकी जिंदगी और मौत के प्रति वहां के जनप्रतिनिधियों का कितना असंवेदनशील नजरिया है, इसका कोई भी अंदाजा लगा सकता है। बच्चों की जिंदगी और मौत को निर्धारित करने वाला एक तत्व यह है कि साफ-सफाई की क्या स्थिति है और पीने का साफ पानी उपलब्ध है या नहीं। इस मामले में भी हालात बद से बदत्तर हैं। यहां सिर्फ 35 प्रतिशत परिवारों में शौचालय है। यानी 65 प्रतिशत परिवारों के लोग खुले में शौचालय जाते हैं। सभी आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि यहां की बहुलांश आबादी को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर विभिन्न जांच टीमों ने समय-समय पर यह बताया कि इंसेफेलाइटिस या एंट्रो वायरस से इस क्षेत्र में होने वाली मासूमों की मौतें, केवल चिकित्सकीय समस्या (मेडिकल प्राब्लम) नहीं है, यह एक आर्थिक-सामाजिक समस्या भी है। यह है, योगी का गोरखपुर। एक सांसद के तौर पर, इस क्षेत्र के सबसे प्रभावी नेता के तौर पर इस स्थिति में सुधार के लिए इस तथाकथिक योगी ने क्या किया है? 19 वर्ष कम नहीं होते हैं, फिर से एक बार याद दिला दें, इन 19 वर्षों में 9 वर्षों तक केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार रही है। जिस भाजपा के सबसे प्रभावी नेताओं में योगी भी एक रहे हैं और हैं। इन 19 वर्षों की जो एकमात्र उपलब्धि योगी या उनके लग्गू-भग्गू बता रहे हैं वह यह कि उन्होंने संसद में इस मुद्दे को 20 बार उठाया। क्या किया उठा कर? कोई इसका यह जवाब दे सकता है कि वे सांसद के तौर पर इससे अधिक क्या कर सकते थे? तो क्या यह मान लिया जाय कि वे एक सांसद के तौर पर बेबश थे, नहीं दोस्तों, ऐसा मानना अपने आपको धोखा देना होगा, खुद को छलना होगा। जो योगी मुसलमान या ईसाइयों के खिलाफ तूफान खड़ा कर देते हैं, लोगों को सड़कों पर उतार देते हैं, जान लेने और देने के लिए उकसा देते हैं, उस योगी ने इंसेफेलाटिस के मुद्दे पर क्यों जनांदोलन नहीं खड़ा किया। योगी से ऐसी उम्मीद करना अपनी आंख में खुद धूल झोंकना है। महंत दिग्विजय नाथ से लेकर अवैद्य नाथ और आदित्यनाथ सबकी राजनीतिक की धुरी हिंदू सांप्रदायिकता रही है, नफरत का जहर रहा है, इसी जहर के बीज से पैदा हुई वोटों की फसल काट कर योगी मुख्यमंत्री पद पर विराजनमान हो गए और आते ही, गोरखपुर मेडिकल कॉंलेज का बजट आधा कर दिया।
सारे तथ्य तो यह बता रहे हैं कि गोरखपुर क्षेत्र और गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की स्थिति बद से बदत्तर होती गई। साल-दर-साल बच्चे मरते रहे। सच तो यह है कि योगी धर्म की अफीम लोगों को चटाते रहे, मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति घृणा बो कर वोट की फसल काटते रहे। इंसेफेलाइटिस और पूर्वांचल की बदहाली को अपनी राजनीतिक सफर की सीढ़ी ही बनाया। मुसलमानों का भय दिखाते रहे। अल्पसंख्यकों और वामपंथियों के प्रति जहर उगलते रहे। देश या दुनिया में योगी पूर्वांचल को बदहली से मुक्त कराने के संघर्ष या इंसेफेलाइटिस के खात्मे के लिए संघर्ष के लिए नहीं जाने जाते, उन्होंने कोई ऐसा संघर्ष किया भी नहीं है। उन्होंने सिर्फ साम्प्रदायिक की राजनीति की है। पूर्वांचल के बच्चों को छला है, धोखा दिया है। सांप्रदायिकता का जहर फैलाया है। इंसानों के दिलों में फैला जहर ही उनकी राजनीतिक पूंजी है, जो उन्हें सत्ता के शिखर तक ले गई। वैसे तो ऐसे व्यक्ति को योगी कहना, वह भी नाथपंथ का योगी कहना, योगियों और नाथपंथ का भी अपमान है, लेकिन क्या किया जाए, इस देश में सब कुछ विद्रूप और विकृत होता जा रहा है।
बात को इस मोड़ पर छोड़ देना कुछ एक दिन के भीतर 60 मासूमों के मौत और पिछले वर्षों में 25 हजार बच्चों की इंसेफेलाइटिस से मौत की गुनहगार उस विचारधारा, उन नीतियों और विकास के उस मॉडल से मुंह मोड़ना होगा, जिसके योगी पुरजोर समर्थक रहे हैं, जिसके खिलाफ उन्होंने कभी एक शब्द भी नहीं बोला। इन नीतियों को मुक्त बाजार की नीतियां या सबकुछ पूंजीपतियों के हवाले करने की नीतियां कहते हैं, जो पूंजीवाद का एक रूप है, जिसमें समाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी से सरकार मुक्त हो जाती है। इन सेवाओं में स्वास्थ्य और शिक्षा भी शामिल है। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति सरकार का कितना सरोकार है, इस सरोकार का सबसे बड़ा और केंद्रीय पैमाना यह है कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद का कितना प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती है। 1990 से अब तक जी.डी.पी. का 0.9 प्रतिशत से लेकर 1.3 प्रतिशत के बीच ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च हुआ है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि कम से कम 4 प्रतिशत खर्च होना चाहिए, वैसे जो उनका मानक 6 प्रतिशत का है। दुनिया में इस समय औसत तौर पर जीडीपी का 5.9 प्रतिशत खर्ज होता है। हमारे राजनेता वादा करते रहे कि कम से कम 2 प्रतिशत तो खर्च ही किया जायेगा, लेकिन यह वादा कभी पूरा नहीं हुआ, मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भी यह वादा किया था, लेकिन इस वादे को पूरा करने की कौन कहे, उन्होंने अपने पहले ही बजट में इसमें कटौती कर दिया। अभी तक यह सरकार तीन बजट प्रस्तुत कर चुकी है, किसी भी बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाने को कौन कहे, तरह-तरह से इसमें कटौती ही की गई। अब तो बात और भी आगे बढ़ चुकी है। मोदी का चहेता, नीति आयोग के सीईओ अमिताभ घोष ने स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति सुधारने के नाम पर सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों के बड़े हिस्से को निजी पूंजीपतियों को सौंपने का सुझाव दिया है। इस सुझाव का निहितार्थ बताते हुए केंद्र सरकार में पूर्व स्वास्थ्य सचिव के. सुजाथा राव कहती हैं कि असल बात यह है कि कार्पोरेट हास्पिटल लंबे समय से सरकारी अस्पतालों पर निगाह लगाए हुए थे। उनकी निगाह इन सरकारी अस्पतालों की जमीनों, डॉक्टरों और मरीजों पर थीं। आखिरकार कार्पोरेट अस्पतालों की इऩ हसरतों को पूरा करने का रास्ता नीति आयोग ने सुझा ही दिया। वैसे मोदी जी के पास हर समस्या का समाधान बाजार और निजीकरण ही है। यह एक बार फिर योगी को याद कर सकते हैं और यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि क्या योगी ने कभी भी स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण का विरोध किया? क्या उन्होंने संसद या संसद से बाहर कभी कहा कि स्वास्थ्य को मुनाफे का धंधा नहीं बनाया जाना चाहिए? क्या उन्होंने 9 वर्षों तक केंद्र में शासन करने वाली भाजपा सरकर से एक सांसद, जनप्रतिनिधि और भाजपा के एक नेता के तौर पर पूछा या कहा कि क्यों स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च नहीं बढ़ाया जा रहा? क्यों स्वास्थ्य सेवाओँ को निजी हाथों व कार्पोरेट को सौंपा जा रहा है? सारे रिकॉर्ड यह बताते हैं कि ये सवाल उन्होंने कभी नहीं पूछे, वे पूछ भी नहीं सकते थे, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें सांप्रदायिकता का जहर फैलाने की तो पार्टी पूरी छूट देती है, लेकिन कार्पोरेट हितों के खिलाफ चूं करने की भी उनको इजाजत नहीं है, क्योंकि मोदी को प्रधानमंत्री इस कार्पोरेट ने बनाया, मुसलमानों के जनसंहारक मोदी की विकासपुरूष की छवि कार्पोरेट मीडिया ने ही गढ़ी है। उन्हीं के धन से मोदी प्रधानमंत्री और योगी मुख्यमंत्री बने हैं। बात इतनी ही नहीं है, मोदी और योगी दोनों का विकास मॉडल कार्पोरेट मॉडल ही है। तभी तो मुख्यमंत्री बनते ही अपने पहले बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर बजट आधा कर, स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का रास्ता खोल दिया।
खुद योगी के गोरखपुर में निजी स्वास्थ्य सेवाएं सबसे तेजी से फल-फूल रही है, उस पूरे इलाके में यह कमाई का सबसे अच्छा धंधा है, निजी नर्सिंग होमों, अस्पतालों की भरमार है। कार्पोरेट अस्पताल भी अपना पांव फैला रहे हैं, प्रतिदिन हजारों-हजार लोग सैकड़ों किलोमीटर से इलाज के लिए यहां आते हैं, जिन्हें डॉक्टर, नर्सिंग होम, अस्पातल, जांच केंद्र अनाप-शानाप तरीकों से लूटते हैं, इनमें बहुत सारे लोग अपनी सारी जमा-पूंजी यहां गंवाकर अपने घरों को लौटते हैं, इस जमा-पूंजी में उनके खेत भी शामिल हैं, जो उनकी रोजी-रोटी के साधन थे। कई बार तो इलाज के दौरान मौत के शिकार सगे-संबंधी को अस्तपताल का बकाया बिल चुका कर ले जाने की स्थिति भी नहीं रहती। इस धंधे में योगी भी शामिल हैं, उनका अपना खुद का बड़ा अस्पाताल है।
कोई तथ्य, कोई तर्क, योगी का इतिहास यह नहीं साबित करता कि योगी का गोरखपुर के मासूम बच्चों से कोई लेना-देना है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की नाव पर सवार इस योगी को गोरखपुर, देश या समग्र इंसानियत को देने के लिए सिर्फ और सिर्फ घृणा का जहर हैं। यह योगी लाख कोशिश कर ले, लेकिन वह मासूमों के खून से सनी अपनी आत्मा को धो नहीं पायेगा। हम उन मां-बाप और सगे-संबंधियों से माफी चाहते हैं, जिन्होंने अपने मासूमों को खो दिया, क्योंकि इस देश के एक नागरिक के तौर पर हम भी उनकी मौत के जिम्मेदार हैं।
Tagged: