Kamaljeet Jaswal's Album: Wall Photos

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"हम अंतिम नहीं है नकुल! कल और पैदा होंगे...."

पुलिस की बंदूक द्वारा मरने से पहले "निषाद" के मुंह से निकली ये लाइनें ही फ़िल्म "आर्टिकल 15" के आगे की कहानी लिखेंगी। फ़िल्म में "निषाद".. भीम आर्मी के चंद्रशेखर "रावण" की भूमिका में हैं।

फ़िल्म का हीरो "आयुष्मान खुराना" होंगे, डायरेक्टर की चाह भी लगभग यही रही है। सिनेमा हॉल में आंख गड़ाए हुए नौजवानों ने भी आयुष्मान के लिए ही तालियां बजाईं। लेकिन मरने से पहले निषाद के मुंह से निकली इन अंतिम पंक्तियों को सुनने के बाद एक इतिहासकार की कुछ पंक्तियां याद आती हैं जिसने गुप्त काल को भारतीय समाज का स्वर्णिम काल मानने से मना कर दिया था। उस इतिहासकार ने कहा कि "गुप्त काल अभिजातीय वर्ग के लिए स्वर्णिम काल रहा होगा, हाशिए के समाज के लिए कोई भी काल कभी भी स्वर्णिम काल नहीं रहा, हाशिए के समाज का स्वर्णिम काल भूतकाल में नहीं, बल्कि भविष्य के गर्भ में है"

फ़िल्म में मिली तवज्जो के हिसाब से आयुष्मान को फ़िल्म का हीरो कहा जा सकता हैं। लेकिन "नायक" निषाद ही था। नायक निकलकर आते हैं, नायक बनाये नहीं जाते, उन्हें रचा नहीं जाता। नायक सड़कों पर खुद पैदा होते हैं। "निषाद" और उसकी प्रेमिका गौरा परिस्थितियों की उस उर्वरभूमि पर पैदा होते हैं जिसने कभी डॉ. अम्बेडकर को पैदा किया था।

"निषाद" आर्टिकल 15 फ़िल्म का एक ऐसा नायक है जिसपर फिल्मकार का कैमरा कम ही पहुंचा। लेकिन निषाद को नायक कहने के पीछे कइयों कारण हैं। निषाद ने असमानता और शोषण पर आधारित जातिव्यवस्था को "इंडियन एक्सप्रेस" अखबार के किसी आर्टिकल को पढ़कर नहीं जाना। और न ही जातिव्यवस्था को जानने के लिए उसने "रामशरण शर्मा" की भारतीय समाज व्यवस्था पर लिखी गई किताबें ही पढ़ीं।

"निषाद" का नायकत्व "सूवर खाने" के आंगन में जन्म लेता है। निषाद का नायकत्व पशुओं का चमड़ा उतारने वाले बाड़े में जन्म लेता है। निषाद का नायकत्व किसी फिल्मकार ने करिश्माई कहानी कहकर नहीं गढ़ा बल्कि उन तमाम परिस्थितियों में जन्मा जिसमें उसके समाज के लोग कभी हरिजन, कभी बहुजन, कभी दलित बनकर रह गए। आदमी न माने गए।

निषाद का नायकत्व उन परिस्थितियों में जन्म लेता है
जिनमें उन्हें क्लास के बाहर बैठकर पढ़ना पड़ता था। जिनके पानी के मटके अलग हुआ करते थे। जिनके बाप को आज भी चौधरी के घर जमीन पर बिठाया जाता है। जिनकी माँ को आज भी जमींदार अपनी हवस तुष्ट करने के लिए अपने खेतों में दबोच लिया करता है। जिन के बच्चों पर समाज ने " पढ़ गए पूत कुमार के सोलह दूनी आठ" जैसी निर्योग्यताएँ लाद दीं। जिनकी माँ की शादी के अगले दिन ही मेहंदी लगे हाथों में टीन की दो परतें थमा दी गईं थीं, पूरे मोहल्ले के दरवाजे-दरवाजे मल साफ करने के लिए...

फ़िल्म आर्टिकल 15 की कहानी क्या है? उसके किरदार कौन हैं? ये बताना मेरा काम नहीं। लेकिन
इतना कहूंगा फ़िल्म आर्टिकल 15 अदम गोंडवी की कविता "चमारों की गली में ले जाता हूँ" से दो इंच अधिक नहीं है।

सिवाय इसके कि इसमें नायक सवर्ण है और शोषित दलित हैं। फिल्मों में ऐसा सम्भव है। लेकिन असल जीवन में हाशिए के समाज का नायक उसी समाज से निकलेगा। जिन्हें अपनी प्रेमिका को चूमने का भी वक्त न मिला। जिन्हें अपनी प्रेमिका की ओर पलभर हंसकर देखना भी पाप लगा। जिन्होंने महबूबा की गोदी में थके हुए सर आराम करने के लिए रखे तो सही! लेकिन महबूबा की गोदी में सर रखते हुए भी उनके मन में पूनम के गीत नहीं आए बल्कि मैला उठाती माँ की तस्वीरें आईं। जिन्होंने पांच मिनट भी किसी नदी में पैर लटकाकर प्रेमिका के साथ नहीं बिताए। जिन्होंने दो मिनट मनभर साथ में चांद नहीं देखा।

अपने संघर्ष के दिनों में निषाद और उसकी प्रेमिका गौरा के मन में ये मलाल तो होता है। लेकिन मरते वक्त निषाद के चेहरे पर इस बात को पढ़ा जा सकता था कि उसे इस बात का सब्र है कि निषाद अंतिम नहीं है कल और लोग जन्म लेंगे!

फ़िल्म अच्छी है, केवल इतना कहना भर कम है। फ़िल्म सम्भवतः दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में से एक साबित हो सकती है। फ़िल्म आर्टिकल 15 इतिहास काल के उसी दर्जे में रखी जा सकती है जिस दर्जे में ओमप्रकाश वाल्मीकि की "जूठन" रखी गई है।

फ़िल्म बनाते समय डायरेक्टर ( Anubhav Sinha ) ने कहीं पर भी बैलेंसवादी बनने की कोशिश नहीं की है। उसने हर छोटी छोटी चीजों पर अपना कैमरा घुमाया है। एक ऐसे दौर में जहां बाजार ही क्रीम-पाउडर से लेकर क्रिकेट की हार जीत तय कर रहा है ऐसे में जितना स्पेस फिल्मकार को मिला है उसमें उसने समाज के सभी बदरंग अंगों को नग्न कर दिखाया है। फ़िल्म के लेखक Gaurav Solanki ने जिस तरह से संवादों को गढ़ा है हिंदी सिनेमा इसपर आने वाले समय में फक्र कर सकता है। एक्टिंग के लिहाज से आयुष्मान तो जचते ही हैं इसपर बहस करने की जगह नहीं मिलती लेकिन मनोज पाहवा की एक्टिंग अनुभव की भट्टी से तपकर निकली मालूम होती है। जिसके आसपास कोई नहीं।

अंत में एक ही बात कि फिल्मकार ने फ़िल्म के किरदारों की अभिव्यक्ति की आजादी का खूब सम्मान किया है। उसने अपने किरदारों के सामने आंखें नहीं नटेरीं, न ही उनकी गलेबान पकड़ी। एक ऐसे समय में जहां सिनेमाहॉल के दर्शकों में एक बड़ी संख्या सवर्णों की ही है ऐसे में जातिव्यवस्था के मुद्दे को सिनेमा की मुख्यधारा में लाकर फिल्मकार ने पीठ थपथपाने का काम किया है।

लेकिन फ़िल्म आर्टिकल 15 को जूम करके देखने पर आप यह पाएंगे कि भले ही फ़िल्म जातिव्यवस्था पर प्रभावी चोट करती है लेकिन निषाद को छोड़कर अन्य दलितों की स्थिति कृपापात्र जैसी ही है।

निषाद और उसकी प्रेमिका गौरा पर एक अलग फ़िल्म भी बन सकती है और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि दलित नायक केंद्रित फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते। फ़िल्म मशान और रजनीकांत की फ़िल्म काला अपने समय की सराही गई वो फिल्में हैं जिसके नायक भी हाशिए के समाज से ही आते हैं। उम्मीद है फिल्मकार बाजार के अदृश्य दवाब से बाहर निकल इस बात को जल्दी ही समझेंगे। और इस बात को भी समझेंगे कि बड़ोदा के ब्राह्मण राजा गायकवाड़ ने भले ही डॉक्टर अम्बेडकर की मदद की, उन्हें पढ़ाने के लिए स्कॉलरशिप दी। विदेश भेजा। हर संभव साथ भी दिया। लेकिन सन 47 के समय दलितों पर बनने वाली फ़िल्म के नायक अम्बेडकर ही होंगे गायकवाड़ नहीं।