दलितों, पिछड़ों बहुजनो के मुक्तिदाता शाहू जी महाराज
करीब 115 साल पहले देश में 50% आरक्षण की व्यवस्था लागू करने वाले शाहू जी महाराज कुर्मी (पिछड़ी जाति) के थे। उन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कई अहम कदम उठाये। उन्हें याद कर रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ :
ब्राह्मणवादी परंपरा में सबसे ‘महान’ राज्य ‘रामराज्य’ और सबसे ‘महान’ राजा राम हुए हैं, लेकिन इस रामराज्य में लोगों का मूल कर्तव्य वर्णव्यवस्था का पालन था। यानी शूद्र और अतिशूद्र द्विजों की सेवा करेंगे और स्त्रियां पुरुषों की। यदि कोई इसका उल्लंघन करता, तो स्वयं राजा राम अपने हाथों उसकी हत्या कर देते थे। इसके बरक्स बहुजन-श्रमण परंपरा में ऐसे राजा हुए हैं, जिनका राज्य सचमुच में न्याय और जनता के कल्याण की स्थापना के लिए था और जिन्होंने वर्ण-जाति व्यवस्था एवं इस पर आधारित भेदभाव को ध्वस्त करने में अपना जीवन लगा दिया। ऐसे ही एक राजा शाहू महाराज थे। वे एक ऐसे राजा हुए जिन्होंने जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के सपनों को साकार कर दिया।
शाहू जी महाराज 2 जुलाई 1894 में कोल्हापुर के राजा बने थे। राजा बनते ही उन्होंने राज्य और समाज पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की शुरूआत कर दी। 26 जुलाई 1902 को भारतीय इतिहास में उन्होंने वह काम कर दिखाया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। शाहू जी महाराज ने चितपावन ब्राह्मणों के प्रबल विरोध के मध्य 26 जुलाई को अपने राज्य कोल्हापुर की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलित-पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। यह आधुनिक भारत में जाति के आधार पर मिला पहला आरक्षण था। इस कारण शाहू जी आधुनिक आरक्षण के जनक कहलाये। परवर्तीकाल में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने शाहू जी द्वारा लागू किये गए आरक्षण का ही विस्तार भारतीय संविधान में किया। संविधान में दलितों के लिए आरक्षण तो लागू हो गया, लेकिन ओबीसी जातियों के लिए आरक्षण भविष्य पर छोड़ दिया गया। जबकि शाहू जी ने अपने राज्य में पिछड़ों और दलितों दोनों के लिए आरक्षण लागू किया था। भारत में पिछडे या ओबीसी जातियों को आरक्षण आजादी के करीब 45 वर्षों बाद 16 नवंबर 1992 को मिला। यानी शाहू जी द्वारा आरक्षण लागू करने के 90 वर्ष बाद।
1894 में जब शाहू जी महाराज राजा बने थे, उस समय कोल्हापुर राज्य के अधिकांश पदों पर चितपावन ब्राह्मणों का कब्जा था। सन 1894 में, जब शाहू महाराज ने राज्य की बागडोर संभाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिक के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। शाहू जी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को 50 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध कराने के कारण 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी।
शाहू जी महाराज फुले की गुलामगिरी में व्यक्त किए गए इस विचार से सहमत थे कि–
‘विद्या बिना मति गई
मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र टूटे
इतने अनर्थ
एक अविद्या ने किए’
शाहू महाराज ने पिछड़ी-दलित जातियों के बीच व्याप्त अविद्या के नाश का बीड़ा उठाया। भारत के इतिहास में वे पहले राजा थे, जिन्होंने 25 जुलाई 1917 को प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क बना दिया। इसके पहले 1912 में ही उन्होंने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया था। स्त्री-शिक्षा के फुले दंपत्ति के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने लड़कियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया। 500 से 1000 तक की जनसंख्या वाले प्रत्येक गांव में स्कूल खोला गया। उन्होंने 1920 में नि:शुल्क छात्रावास खुलवाया। इस छात्रावास का नाम ‘प्रिंस शिवाजी मराठा फ्री बोर्डिंग हाउस’ रखा गया था।
हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि पेशवाओं के ब्राह्मणवादी शासन की स्थापना के बाद महाराष्ट्र के धार्मिक जीवन के साथ-साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन पर भी ब्राह्मणों का वर्चस्व और नियंत्रण कायम हो गया था। इस वर्चस्व और नियंत्रण को तोड़ने के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण, नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के साथ ही शाहू जी ने धार्मिक प्रभुत्व को भी तोड़ने का निर्णय लिया। 9 जुलाई 1917 को उन्होंने एक आदेश जारी किया कि कोल्हापुर राज्य के समस्त देवस्थानों की आय और संपत्ति पर राज्य का नियंत्रण होगा। इसके साथ ही उन्होंने मराठा (पिछड़ी) जाति के पुजारियों की नियुक्ति का भी आदेश जारी किया। 1920 में उन्होंने पूजा और पुरोहितों के प्रशिक्षण के लिए विद्यालय खुलवाया। डॉ. आंबेडकर के हिंदू कोड बिल से तो हम सभी परिचित हैं, लेकिन 11 नवंबर 1920 को ही शाहू जी महाराज ने भी एक हिंदू कोड बिल पास किया था, यह शायद ही किसी को पता है। इस बिल के माध्यम से उन्होंने संपत्ति के उत्तराधिकार के संदर्भ में मिताक्षरा न्याय सिद्धांत को समाप्त कर दिया। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है। इसकी मूल बात यह है कि स्त्री को संपत्ति उत्तराधिकार में नहीं मिल सकती। इस पर तरह-तरह की शर्तें और प्रतिबंध लगाये गये हैं। उन्होंने गांवों में पुरोहितों और पुजारियों की प्रणाली को समाप्त कर दिया।
अछूतों (दलितों) को समाज में बराबरी का हक दिलाने और उनकी स्थिति में सुधार के लिए शाहू जी ने अन्य विशेष कदम भी उठाये। 1919 से पहले अछूत कहे जाने वाले समाज के किसी भी सदस्य का इलाज किसी अस्पताल में नहीं हो सकता था। 1919 में शाहू जी ने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार अछूत समाज का कोई भी व्यक्ति अस्पताल आकर सम्मानपूर्वक इलाज करा सकता है। इसके अलावा उन्होंने 1919 में ही यह आदेश भी जारी किया कि प्राइमरी स्कूल, हाई स्कूल और कॉलेजों में जाति के आधार पर छात्रों के साथ कोई भी भेदभाव न किया जाय। उन्होंने दलितों को नौकरियों में जगह देने के साथ ही इस बात का आदेश दिया कि सरकारी विभागों में कार्य कर रहे दलित जाति के कर्मचारियों के साथ समानता और शालीनता का बर्ताव किया जाय। किसी प्रकार का छुआछूत नहीं होना चाहिए। जो अधिकारी इस आदेश का पालन न करने के इच्छुक हों, वे 6 महीने के भीतर त्यागपत्र दे दे
दलितों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष प्रथाओं का अंत किया जो युगांतकारी साबित हुईं। पहला, 1917 में उन्होंने उस ‘बलूतदारी-प्रथा’ का अंत किया, जिसके तहत एक अछूत को थोड़ी-सी जमीन देकर बदले में उससे और उसके परिवार वालों से पूरे गाँव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जाती थीं। इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा ‘वतनदारी’ का अंत किया तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया। इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई। दलित हितैषी कोल्हापुर नरेश ने 1920 में मनमाड में दलितों की विशाल सभा में सगर्व घोषणा करते हुए कहा था-‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हें तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है। मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे।’ उन्होंने दलितों के मुक्तिदाता की महज जुबानी प्रशंसा नहीं की बल्कि उनकी अधूरी पड़ी विदेशी शिक्षा पूरी करने तथा दलित-मुक्ति के लिए राजनीति को हथियार बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान किया।
पिछड़ों, दलितों और महिलाओं को न्याय और समता का हक दिलाने के लिए शाहू जी महाराज को महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों के कोप और क्रोध का शिकार होना पड़ा। उन्हें विभिन्न तरीकों से अपमानित करके की कोशिश की गई।
शाहू जी के प्रति साधारण ब्राह्मणों की घृणा के कारणों को समझा जा सकता है। जिस व्यक्ति ने उनके सभी प्रकार के वर्चस्व को तोड़ दिया, उससे उनका घृणा करना लाजिमी था। दुखद बात यह थी कि बाल गंगाधर तिलक और डांगे (वामपंथी) जैसे व्यक्तियों ने भी उनके प्रति क्रोध और घृणा व्यक्त की है। तिलक से तो शाहू महाराज का निरंतर संघर्ष चलता रहा।
पिछड़ों और दलितों के मुक्तिदाता राजा शाहू जी महाराज का जन्म कुनबी (उत्तर भारत में कुर्मी) जाति में 26 जून 1874 में हुआ था। 20 वर्ष की उम्र में वे 1894 कोल्हापुर राज्य के राजा बने। 26 जुलाई 1874 को कोल्हापुर राजमहल में जन्मे शाहू जी छत्रपति शिवाजी के पौत्र तथा आपासाहब घाटगे कागलकर के पुत्र थे। उनके बचपन का नाम यशवंत राव था। तीन वर्ष की उम्र में अपनी माता को खोने वाले यशवंत राव को 17 मार्च 1884 को कोल्हापुर की रानी आनंदी बाई ने गोद लिया तथा उन्हें छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया गया। बाद में 2 जुलाई 1894 में उन्होंने कोल्हापुर का शासन अपने हाथों में लिया और 28 साल तक शासन किया। 19-21अप्रैल 1919 को कानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के 13वें राष्ट्रीय सम्मलेन में उन्हें राजर्षि के ख़िताब से नवाजा गया। शाहू जी की शिक्षा विदेश में हुई तथा जून 1902 में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एलएलडी की मानद उपाधि प्राप्त हुई जिसे पानेवाले वे पहले भारतीय थे। इसके अतिरिक्त उन्हें जीसीएसआई, जीसीवीओ,एमआरइएस की उपाधियाँ भी मिलीं।
पिछडे-दलितों के अपने इस राजा का शासनकाल सिर्फ 28 वर्ष ही रहा। मात्र 48 वर्ष की उम्र में 6 मई 1922 को उनका देहांत हो गया, लेकिन जो मशाल उन्होंने फुले से प्रेरणा लेकर जलाई थी, उसकी रोशनी आज भी कायम है।