तुम जहाँ से आते हो न
उसी को पाने में,
अपना सब कुछ
दाँव पर लगा देते हो
अपनी मान मर्यादा,
अपने मानव होने पर
प्रश्न चिन्ह लगा लेते हो,
तुम सिर्फ इतिहास के
अलाउद्दीन ही नहीं हो,
मिल जाते हो
हर सड़क गली मोहल्लों
सार्वजनिक स्थानों
घरों ऑफिसों में
यहाँ वहाँ हर जगह
पाये जाते हो,
समझते हो तुम
अतीत है पद्मावती,,,,
नहीं,
जौहर में भस्म नहीं हुई
पद्मावती,
यही है देखो
हमारे आस पास
हर घर में,
है एक पद्मावती,
जीवन की दौड़ में
हारने के बाद
उठाती है,
अपने पिता,पति का बोझ
अपने कांधों पर
सँवारती है घर परिवार,
करती है संग्राम जीवन के
रणभूमि में हर बार,
पत्नी,बेटियाँ,बहन
बन कर
तपती झुलसती,निखरती है
इसी जौहर में सँवरती हैं,
किंचित हार नहीं मानती
आज की पद्मावतियाँ,
पीड़ा की एक बूँद भी
नहीं भिगोती उनकी
माथे की लकीरों को
और न ही झुकते हैं
किसी अलाउद्दीन के आगे
उनके शीश,
और तुम अभी भी चाहते हो
विजयी कर लेना
कितनी ही पद्मिनियाँ,
उनके रूप रस पर
पराजित हो जाती हैं
तुम्हारी सभी इन्द्रियाँ,
भर देना चाहते हो उनमें
अपने तन मन का
सारा कचरा,,
भूल जाते हो
यही पद्मावती
जब धरती है
माँ दुर्गा का रूप,
कर देती है तुम्हारा
सर्वस्व विनाश,
तब भी थी पद्मावती
आज भी है
और
सृष्टि के संचालित होने तक
सतत्
गायी जायेंगी
अनेकों पद्मावतियों की
गौरव गाथाएँ,
और सदा सर्वदा
तुम्हारे जैसे अलाउद्दीनों को
याद दिलाती रहेंगी
कर्तव्यों की वेदी में
अपना जौहर,
वो जौहर जहाँ
वे तपती झुलसती,निखरती हैं,,