महात्मा के पास ''सूर्यकान्त मणि'' थी। जब उनका अन्तकाल समीप आया तो बड़े प्रयत्न से अर्जित यह मणि उन्होने अपने पुत्र सौमनस को दे दी और कहा- ' यह कामधेनु के समान मनोवाँछा प्रदान करने वाली है। इसको सम्भाल कर रखना। इससे तुम्हारी सब आवश्यकताएँ सहज में पूर्ण हो सकेगी और तुम्हें कभी किसी चीज का अभाव नहीं हो सकेगा।''
सौमनस ने मणि तो ले ली पर पिता के उपदेशों पर कुछ ध्यान नहीं दिया। रात्रि के समय दीपक के स्थान पर वह उसका उपयोग करने लगा। एक दिन उसकी प्रेयसी वेश्या ने उपहार में वह मणि माँगी और सौमनस ने उसे बिना किसी संकोच के दे डाली।'
वेश्या ने कुछ समय बाद एक जौहरी के हाथ उसे बेच दिया और उस धन से शृंगार की सामग्री खरीद ली। जौहरी ने मणि की परीक्षा ली और रासायनिक प्रयोगों द्वारा उसकी सहायता से बहुत- सा सोना बना लिया। इससे वह बड़ा वैभवशाली बन गया और अपना जीवन राजा- महाराजाओं की तरह व्यतीत करने लगा। अनेक दीन- दुखियों की भी उसने उस स्वर्ण राशि से बहुत सहायता की।
आनन्द ने' अपने शिष्य बिद्रुथ को यह कथा सुनाते हुए कहा- ' वत्स। यह जीवन सूर्यकान्त मणि के समान है। इसका सदुपयोग करना कोई- कोई पारखी जौहरी ही जानते हैं, अन्यथा सौमनस और गणिका की तरह उसे कौड़ी मील गँवा देने वाले ही अधिक होते हैं। ''