Hemant Chavan's Album: Wall Photos

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स्वामी श्रद्धानंद की हत्या सेक्युलर थी
और गांधी की हत्या सांप्रदायिक ?
23 दिसंबर, 1926 को अब्दुल रशीद
नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली
चलाकर स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या
कर दी। यह युवक स्वामी जी से मिलकर
इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगंतुक
के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके
निवास स्थान गया था। वह स्वामी जी के
शुद्धि कार्यक्रम से पागलपन के स्तर तक
रुष्ट था।
इस घटना से सभी दुखी थे क्योंकि इस
सन्यासी ने देश एवं समाज को उसकी मूल
की ओर मोड़ने का प्रयास किया था।
गांधी , जिन्हे स्वामी श्रद्धानंद ने
‘महात्मा’ जैसे आदरयुक्त शब्द से संबोधित
किया, और जो उनके नाम के साथ नियमित
रूप से जुड़ गया, ने उनकी हत्या के दो दिन
बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को
गोहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन
में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह
स्तब्ध करने वाला था। गांधी के शोक
प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस
प्रकार है “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा
और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे
स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं
मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं
जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की
भावना पैदा की ।
इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू
बहाने का नहीं है।“ यहाँ यह बताना
आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने
स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी
उत्तर प्रदेश के खान मुस्लिमों की शुद्धि
कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में
वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई
रोक नहीं लगाई गई थी जबकि वो
ब्रिटिश काल था।
यहाँ यह विचारणीय है कि महात्मा
गांधी ने एक हत्या को सही ठहराया
जबकि दूसरी ओर वो अहिंसा का पाठ
पढ़ाते रहे। हत्या का कारण कुछ भी हो,
हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी
नहीं। अब्दुल रशीद को भाई मानते हुए उसे
निर्दोष कहा। इतना ही नहीं गांधी ने
अपने भाषण में कहा,”… मैं इसलिए स्वामी
जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता।…
हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे
समुदाय को अपराधी नहीं मानना
चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत
करने की इच्छा रखता हूँ।“ उन्होने आगे
कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी
कीमत चुकानी ही पड़ती है। स्वामी
श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी
अनुपयुक्त नहीं है।“ अब्दुल रशीद के
धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये
गांधी ने कहा कि “…ये हम पढे, अध-पढे
लोग हैं जिन्होने अब्दुल रशीद को
उन्मादी बनाया।…स्वामी जी की हत्या
के पश्चात हमे आशा है कि उनका खून हमारे
दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल
करेगा और मानव परिवार के इन दो
शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर
सकेगा।“(यंग इण्डिया, दिसम्बर 30,
1926)। संभवतः इन्हीं दो परिवारों
(हिन्दू एवं मुस्लिम) को मजबूत करने के
लिए गांधी जी के आदर्श विचार को मानते
हुए उनके पुत्र हरीलाल और पोते कांति ने
हिन्दू धर्म को त्याग कर इस्लाम
स्वीकार कर लिया। महात्मा जी का
कोई प्रवचन इन दोनों को धर्मपरिवर्तन
करने से रोकने में सफल नहीं हो पाया।
सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द सरस्वती ने
ही शुद्धि कार्यक्रम आयोजित कर
देहरादून के एक युवक को वैदिक धर्म में
प्रवेश कराया। बाद में स्वामी
श्रद्धानन्द ने इस कार्यक्रम को आगे
बढ़ाया।
गांधी के सेक्युलरिज़्म के हिसाब से यह
कार्यक्रम मुस्लिम विरोधी था इसलिए वे
स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या को
न्यायोचित ठहराने लगे। सत्य और न्याय
दोनो शब्द पर्यायवाची हैं। जहां सत्य है,
वहीं न्याय है और जहां न्याय है, वहीं सत्य
है। फिर गांधी की हत्या को न्योचित
ठहरना और हत्यारे को निर्दोष मानना
उनके सत्य एवं न्याय के सिद्धान्त के दावे
को खोखला साबित करता है। अहिंसा के
पुजारी यदि सेक्युलरिज़्म के नाम पर
हिंसा को न्यायोचित ठहराएँ तो उनके
प्रवचन का क्या अर्थ। गांधी के लिए अपने
विचार सही हो सकते हैं लेकिन यह जरूरी
तो नहीं की सभी के लिए हों। नाथूराम
जी के अपने विचार थे। देश का धर्म के
आधार पर विभाजन की पीड़ा असहनीय
थी। मुसलमानों के प्रति विशेष झुकाव के
कारण हिन्दू समर्थक गोडसे जी की गांधी
से मतभिन्नता थी। जिसके परिणामस्वरूप
गांधी हत्या हुई। इस हत्या को भी किसी
तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा
सकता, लेकिन यदि हम देखे तो नाथूराम
को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
अपने विचार से गोडसे ने भी हिन्दू समुदाय
एवं राष्ट्रहित में यह कार्य किया था।
उसके समर्थक मूर्ति स्थापित करना चाहते
हैं तो क्या समस्या है। यदि स्वामी
श्रद्धानन्द का हत्यारा निर्दोष है तो
गांधी का हत्यारा भी निर्दोष है। यह
तो नहीं हो सकता कि स्वामी जी की
हत्या सेक्युलर थी और गांधी की हत्या
साम्प्रदायिक?