पिंकी जैन's Album: Wall Photos

Photo 325 of 35,210 in Wall Photos

चित्र और उसमें एक कविता...

ये बड़ा जोख़िम भरा काम है - किसी चित्र पर कविता लिखना। फिर कलाकार के कोमल मन ने जाने क्या-क्या सोचा होगा इस चित्र को रचते हुए..? कई ख़याल, कई सवाल...।

" अवसाद और विद्रोह "

तुम
ये जो तस्वीर देख रहे हो ना
मैंने बनाई है
एक
छोटे से कैनवास पर
सारी दुनिया सजाई है
मैं खुद शामिल हूं इसमें
और तुम भी...।

तुम्हें
इस बार भी
यकीन न होगा मुझ पर
सोच रहे होगे
कि
कैनवास पर भला कैसे
उतारा जा सकता है
सारा संसार
मैं फिर कहती हूं इस बार
मैंने रचा है - ये संसार।

तुम
ये जो तस्वीर देख रहे हो
इसमें रंगों में रंग गुंथे हुए हैं
आकारों में आकार छिपे हुए हैं
मासूमियत है, कोमलता है
और कई सपने हैं इसमें
चिढ़ है, कुढ़न है, गुस्सा है
और कई अपने हैं इसमें।

इसमें मैं हूं - एक औरत
और
उसके ख़िलाफ़ हो रही साजिशें हैं
आज़ादी का नारा देकर
बेड़ियां कसने वाली बंदिशें हैं।

इस तस्वीर में
एक नहीं, दो नहीं
अनगिनत किस्से हैं
महाकाव्यों और धर्मग्रंथों के
वे तमाम हिस्से हैं
जिसमें शामिल हूं मैं
हर रूप में।
तुमने मुझे -
कभी सीता बनाया कभी सती
कभी द्रौपदी बनाया कभी रति
जैसे चाहा, जब चाहा
इस्तेमाल किया।

इस तस्वीर के
काले-नीले रंगों में
निराशा है, अवसाद है
बीती सदियों की याद है
नाराज़गी है, दुःख है
और चमकीले रंगों में
चमकता तुम्हारा सुख है।

तुम -
सुखी रहो
मैं नहीं चिढ़ती तुमसे
लेकिन
मुझे चिढ़ है -
तुम्हारे चेहरे पर लगे
उस चेहरे से जो सदियों से
सिर्फ़
झूठ ही बोलता आया
हर षड्यंत्र और पाखंड को
मर्यादा का चोला पहनाया।

मुझे चिढ़ है -
तुम्हारे लंबे नाखूनों वाले
उन हाथों से
जो सदियों से मेरे लिए बुनते रहे
अदृश्य धागों का मकड़जाल
वे हाथ जो -
घोंटते रहे मेरी खुशियों का गला
लज्जा, शील, चरित्र जैसे शब्दों के बेजा
प्रयोग में हर बार दिखाते रहे अपनी कला।

मुझे चिढ़ है -
तुम्हारी भेड़िये सी
खूंखार आदिम आँखों से
जो सदियों से
आकर चिपक जाती हैं सीधे
मेरी देह पर।
हजारों-हजार साल से
तुम्हारी इन आँखों ने
कुछ और देखना ही नहीं चाहा मुझमें
मेरी देह के सिवाय।

सुनो -
जोर से कहती हूं
जरा ध्यान से सुनो -
मैं
बहुत सुन चुकी पांवों में बंधी
इन बेड़ियों की खन-खन-खन
मर्यादा के नाम पर
तुमने पहना रखे हैं जो बंधन
उन्हें ख़ारिज करते हुए तोड़ूँगी
तोड़ दूंगी एक झटके में
तुम्हारी हत्यारी साजिशों का ये चक्रव्यूह
अब और नहीं चिढूँगी
अब और नहीं सहूंगी
अब और नहीं उलझूंगी
तोड़ दूंगी ये अदृश्य कारा।।

- अनुपम निशान्त