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प्रेम तुम्हारे भीतर उठी आनंद की ऊर्मि: ओशो
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प्रेम में कोई किसी को रोक ही नहीं सकता। जिससे तुम प्रेम करते हो, वह भी नहीं रोक सकता तुम्हें प्रेम में। कैसे रोक सकता है? प्रेम तो तुम्हारा दान है।

प्रेम कभी असफल नहीं होता--हो ही नहीं सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रेम तुम करोगे तो वह तुम्हें मिल ही जाएगा। उसको मैं सफलता नहीं कहता। प्रेम के तो करने में ही सफलता है। बात ही खत्म हो गई; और कोई लक्ष्य नहीं है प्रेम में।

प्रेम तो तुम्हारे भीतर उठी आनंद की ऊर्मि है। किसी के चेहरे को देख कर उठी, बात पूरी हो गई। किसी की आंखों को देख कर उठी, बात पूरी हो गई। किसी फूल को खिला देख कर उठी, बात पूरी हो गई। तुम मालिक क्यों होना चाहो? तुम प्रेम और लोभ में भेद नहीं समझ पा रहे हो।

तुम प्रेम और मोह में भेद नहीं समझ पा रहे हो। तुमने लोभ और मोह को प्रेम समझा है। और ऐसा प्रेम तो असफल होगा ही। तुम्हें नही मिला, इसलिए नहीं; मिल जाता तो भी असफल होता।

अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिसको तुम पाना चाहते थे और नहीं पा सके, तो तुम्हारा अहंकार तड़फता रहता है, क्योंकि तुम्हें चोट लगी, तुम नहीं पा सके। तुम हार गए। तुम अपनी विजय करके दिखाना चाहते थे और विजय नहीं हो पाई। वह घाव तुम में तड़फता है। यह अहंकार ही है, यह प्रेम नहीं है।

पूछते हो: "आप कहते हैं--प्रेम है द्वार प्रभु का।' मैं कहता नहीं; ऐसा है। प्रेम है द्वार परमात्मा का। और प्रेम के अतिरिक्त उसका कोई और द्वार नहीं है।

लेकिन मेरे प्रेम की परिभाषा समझो।
प्रेम है दान,
प्रेम है विसर्जन,
प्रेम है समर्पण।

साभार:ओशो विचार मंच- सत्यगुरु गौरीश
प्रेम के सौ रंग-12, खंड-02