एक सन्यासी को रास्ते में पड़ा हुआ एक रुपया मिल गया । उसने सोचा कि, "यह रुपया किसको दिया जाये ? जो महागरीब हो उसको ही देना चाहिए ।" एक बार नगर का राजा (बादशाह) दूसरे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा था । बादशाह हाथी पर बैठा था । सन्यासी ने वह रुपया उसकी जेब में फेंक दिया । राजा कहता है कि, "यह रुपया क्यों फेंका ?" सन्यासी बोला, "यह एक रुपया जो मुझे मिला था सो मैंने सोचा कि मैं यह रुपया जो महा गरीब मिलेगा उसको दे दूँगा । मुझे तो आपसे गरीब कोई नजर नहीं आया तो आपको यह रुपया दे दिया ।"
राजा ने कहा, "मैं गरीब कैसे हूँ ? मेरे पास नगर है, बहुत सा वैभव है फिर मैं गरीब कैसे हूँ ?" सन्यासी बोला, "महाराज ! आप गरीब नहीं होते तो एक छोटे से राजा पर चढ़ाई करने क्यों जाते ? आपके पास कुछ नहीं है इसलिए तो आप दूसरे का धन हड़प करने के लिए जाते हो । आपसे बढ़कर कोई गरीब नहीं है ।" सन्यासी की बात सुनकर राजा को ज्ञान हुआ । उस सन्यासी ने राजा को अमीर बना दिया । राजा ने उसी जगह से अपनी सेना को वापस लेकर लौट गया ।
*सो भैया ! जितना वैभव है उससे भी यदि पौना वैभव है तो क्या गुजारा नहीं चलेगा ? अरे जो है वो भी बहुत है और नहीं है तो क्या करोगे ? यदि इस जीवन में परिग्रह ही परिग्रह को जोड़ा तो क्या किया ? परिग्रह जोड़कर परिग्रह से संबंधित अपनी बुद्धि से मात्र पाप ही कमाया । इस जीवन का ध्येय तो धर्म पालन का है । मनुष्य भव जब पाया है तो करने का काम तो धर्म पालन ही है अर्थात वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना है । मोह-ममता को हटाओ, अपनी पवित्रता को बढ़ाओ और अपना जीवन सफल अपने आत्मकल्याण से करो तभी इस मनुष्यों पर्याय की सार्थकता है । नहीं तो यह मनुष्य पर्याय दुबारा मिलने की कोई गारंटी नहीं है । आतम के अहित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय । सो आत्म कल्याण के मार्ग पर बहुत गंभीरता से चलो ।*
पुस्तक का नाम - दृष्टान्त प्रकाश, शान्ति की खोज ।
संकलनकर्ता - जगनमल सेठी ।