बहुत मैली सी दिखती हो
कोई पावन नदी हो क्या?
सरे बाजार बिकती हो
कोई पावन नदी हो क्या?
शिखर से जब निकलती हो,
बहुत अटखेलियाँ करती।
हहाती गीत नव गाती,
उफन आकाश तक छाती।
निर्भीक यू ऊँचे शिखर से कूद जाती हो,
धरा पर कोई प्रीतम बाँह फैलाये खड़ा है क्या?
स्वर्ग से ज्यों उतर आयी
प्राण की धार लगती हो
सरे बाजार बिकती हो
कोई पावन नदी हो क्या?
आस्था के पुष्प और मूरत,
किनारे पर बिलखते हैं ।
बहुत से अधजले शव रोज,
तर्पण को उफनते हैं ।
एक तीर पर शवदाह और
एक तीर पर जलसा।
जिंदगी की धार बनकर सतत निर्मोह बहती हो।
समंदर में समा जाने की ये भी इक वजह है क्या?
पाप और पुण्य के मजधार से,
निर्मल निकलती हो।
सरे बाजार बिकती हो
कोई पावन नदी हो क्या?
धरा के पापियों के
पाप को बेखौफ हरती हो।
मन की भ्रांति कर्म के दाग,
नीर से साफ करती हो।
प्रगति पथ में बहते हलाहल को निगलती हो,
सभ्यता की जननी खुद काल के आगोश में हो क्या?
आस्था के नाम पर बस,
अंजुलियो में रहती हो।
सरे बाजार बिकती हो
कोई पावन नदी हो क्या?