कोई देवी नहीं हूँ, न हूँ कोई शक्ति।
बना दिव्य मूरत,मत करो मेरी भक्ति।
बस इंसान होने का हक़ चाहिये ।
पंख फैला सकूँ वह फलक चाहिये।
मर्यादा, लज्जा और सहनशीलता,
रिवाजों की कर ली बहुत दासता ।
घूँघट या बुर्खा या गेसू खुले हों ,
श्रृंगार मेरा जमाना तय करे क्यों?
मुझे मेरे नजर की कदर चाहिये।
बस इंसान होने का हक़ चाहिये।
मात्र धरती समझ कर न रौंदो मुझे,
सपनों के सितारे न तोड़ो मेरे ।
हो पूरी जमाने की मन्नत सभी,
इसलिये टूटकर मैं बिखरती रही ।
अपने सपनो की झिलमिल डगर चाहिये,
खुद के होने का मुझको असर चाहिये।
मेरा होना खुशी का सबब क्यों नहीं ?
जन्म पर बेटियों के खुशी क्यों नहीं ?
सर झुकाने की कोई वजह मैं नहीं हूँ,
बुढ़ापे की मजबूत मैं भी छड़ी हूँ ।
हक़ और अधिकार में न फरक चाहिये ।
बस इंसान होने का हक़ चाहिये ।