पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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*वो कदम जो दर्द में चले.....*
गतांक से आगे.....

*8 जुलाई 2000 रविवार*

*"जब आता कर्मों का फेर- मकड़ जाल में फंसते शेर"*

_प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई, उसके बाद समाचार आया कि बिलासपुर से डॉक्टर लोग कल आएंगे। रविवार को हॉस्पिटल बन्द रहती है। आज आचार्यश्री की औषधि चली,और तेल भी लगाया। दर्द में तीव्रता आती जा रही थी। जहां रुकेे थे, वही पर ब्रह्मचारी गणो ने अभिषेक-पूजन के लिए एक प्रतिमाजी विराजमान किये थे। यही से जिन दर्शन करके, फिर आचार श्री आहार चर्या को उठे।_
_*दोपहर में आचार्यश्री को पीड़ा हो रही थी, और मेरा भी असाता कर्म इसी समय उदीर्णना को प्राप्त हुआ, जिसने मुझे वैयावृति से बंचित कर दिया। मुझे बहुत जोर से सर्दी,जुखाम और बुखार आ गया।* मैं एक तरफ बैठा था, और महाराज लोग आचार्यश्री के पैर को तेल लगाकर उसे सहला रहे थे। *आचार्यश्री की पीड़ा को देखकर मैं सोच रहा था, आखिर कैसा अनुभव हो रहा होगा आचार्यश्री को?* मैंने सहज रुप से आचार्य श्री से पूछा- आचार्य श्री जी जब आपको दर्द होता है, तो आप कैसे सहन करते हैं?_
*आचार्य श्री ने इतनी पीड़ा में भी अपने अधरों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा- "भैया अपना ही तो कर्म है, उसी की उदीर्णना चल रही है। सहन करने की चेष्टा तो करता हूं, परन्तु अति हो जाती है, तो आकुलता होती है। लेकिन समता से सहन कर रहा हूं। इसमें भी हम असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करते हैं।"*

_वैयावृत्ति करते-करते मुनि श्री प्रवचन सागर जी महाराज ने एक कहावत सुनाई, वह कहावत थी।_
*"जब आता कर्मों का फेर- मकड़ जाल में फंसते शेर"*

_आचार्य श्री ने यह बात सुनी, और बहुत जोर से हंसे। कहा- *बहुत अच्छा, एकदम सही बात है। एक बार फिर से सुनाओ।*
_मुनि श्री ने कहावत को फिर से दोहराया। आचार्य श्री ने उसे याद कर ली। लेटे-लेटे बोले *"जब आता कर्मों का फेर, मकड़ जाल में फंसता शेर। बहुत अच्छी बात कही है इसमें, ऐसी कहावत में पूरा जैन दर्शन का सार है।"*_
मुनि श्री प्रवचन सागर जी को कहावतें एवं नीतिपरक दोहे-शायरियां बहुत आती थी। इसी समय एक शायरी भी सुनाई।

*आए थे फूल तोड़ने बागे हयात में।*
*दामन को ख्वार जाल में उलझा के रह गए।*
_इस शायरी के माध्यम से कहने का आशय यह था, आए तो हम अहिंसा के कार्य के लिए, काम तो हुआ लेकिन हम स्वयं फस कर रह गए। *आचार्य श्री हंस दिए और मन में पूर्व की कहावत पंक्तियां याद कर रहे थे। लेटे-लेटे दोहा को बोले, और कहते हैं। एक सही बात है इस दोहे में। कर्म के सामने अच्छे-अच्छे योद्धा भी पराजित हो जाते हैं।*
_इसी प्रकार चर्चा चलती रही। और हम उपचार करते रहे। पैर पर जो दाने लालिमा लिए थे, उस पर कैंडिड बी लोशन लगा रहे थे। रात्रि में वैद्य जी ने एक लेप बनाया। उसे आचार्य श्री के पैर पर लगाया। लेकिन जब तक वह गीला रहा, तब तक ठीक रहा। सूखने के बाद दर्द और बढ़ गया। चमड़ी में खिंचाव से होने लगा। उसे छुटाने में और तकलीफ हो गई। रात्रि में बहुत वेदना रही, जिसको कहना संभव नहीं है।_
_*मुनि श्री प्रसादसागर जी साथ में सो रहे थे, उन्होंने एक बात कही। आचार्य श्री ने पूरे वर्ष में जितनी करवट नहीं बदले होंगे, जितने आज पूरी रात में बदलते रहे। लेकिन सहनशीलता बहुत थी। यही रोग यदि सामान्य ग्रहस्थ को हो जाए, तो वह चिल्लाता, रोता और दर्द की पीड़ा में कराहता रहता।*_

शेष आगे........

*सद्गुरु के प्रसंग बने जीवन की अंग*
मुनि श्री अजितसागर जी महाराज द्वारा संकलित और लिखित इस कृति के अंदर पुज्य आचार्य भगवन 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के जीवन के कुछ ऐसे प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको पढ़कर एक तरफ जहां गुरुवर की सरलता, वात्सल्यता का परिचय होता है, वहीं दूसरी ओर गुरुवर की कठोर साधना और तपश्चर्या का परिचय भी मिलता है। इस अनुपम कृति के प्रत्येक अध्याय को हम अपनी इस पोस्ट के माध्यम से सिलसिलेवार आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।