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उत्तम आकिंचन्य धर्म
4-9-2017
धर्म के दसलक्षणों मै से नौवां पवित्र दिवस उत्तम आकिंचन्य धर्म का है ।। यह भेदज्ञान का द्योतक है ।
व्यवहार पक्ष से उत्तम आकिंचन्य धर्म का स्वरूप् परिग्रह एवम् उसके भाव का त्याग करना , अथवा अपने आप को पर से विभक्त और निज से एकत्व रूप अनुभव करना वह उत्तम आकिंचन्य धर्म है ।
निश्चय पक्ष से मेरा आत्मा स्वयम् ही उत्तम आकिंचन्य धर्म स्वभावी है मात्र उस आत्मा को उत्तम आकिंचन्य धर्म स्वभावी जानना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म की प्रगटता है ।।
एक बार एक आदमी एक संत के पास गया और कहा महराज । कोई अच्छा सा आशीर्वाद दे दीजिये । संत ने आशीर्वाद देते हुए कहा - मनुष्य बनो ।
आदमी चकित होकर कहता है की महाराज ये कैसा आशीर्वाद है ?? मै मनुष्य तो पहले से हूँ , फिर कैसे मनुष्य बनूँ ???
महाराज ने कहा - जैसे चींटी के पास सामग्री इकठ्ठा करने की आदत होती है , वैसे ही तेरे अंदर भी ज्यादा से ज्यादा इकठ्ठा करने की आदत है । चींटी तो फिर भी अपनी जरूरत के हिसाब से इकठ्ठा करती है पर तुम तो आवश्यक से भी अधिक इकठ्ठा करने में अपना जीवन बेकार कर देते हो । इसलिए मै कैसे तुम्हें मनुष्य कहूँ ?? अतः पहले मनुष्य बनो फिर तुम्हें कोई और आशीर्वाद दे दूंगा ।।
शिक्षा - जीवन की सार्थकता भी इसी में है कि मै जो हूँ उसी मै संतुष्ट रहूँ ।
मै अनादिकाल से आकिंचन्य धर्म स्वभावी हूँ किन्तु उसको भूलकर सम्पूर्ण जीवन परिग्रह जोड़ते जोड़ते सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ मै व्यतीत करते हैं और संसार परिभ्रमण करते हुए दुःखी हो रहा हूँ ।।
बाह्य जीवन मै आकिंचन्य धर्म निर्ग्रन्थ दशा को धारण करने का प्रेरक धर्म है । मुनिराज के जीवन का उत्तम आकिंचन्य धर्म सतत उनकी प्रारम्भिक अवस्था से ही चलता रहता है । मुनिराज की परिणति में यह दश धर्म प्रगट रहते हैं , इन दश धर्मो को मुनिराज का बेटा भी कहा जाता है ।।
अपनी चैतन्यस्वरूप आत्मा के अतिरिक्त अन्य किंचित भी मेरा नही है ऐसा निश्चय पूर्वक भाव ही आकिंचन्य है ।।
अतः उत्तम आकिंचन्य धर्म को प्रगट करने का फल अपरिग्रही अवस्था (सिद्ध दशा) को प्राप्त कर लेना है ।
अतः हम भी अपनी आत्मा को उत्तम आकिंचन्य धर्म स्वभावी समझकर अपनी परिणति को पवित्र बनाकर संसार परिभ्रमण के दुखों से मुक्त होकर अनादिकाल तक के लिए सुख को प्राप्त करूँ , वास्तविक में यही उत्तम आकिंचन्य धर्म को प्रगट करने की सार्थकता है ।।
उत्तम आकिंचन्य धर्म की जय हो
अमित जैन अरिहंत