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करवाचौथ का अर्थ, महत्त्व और इतिहास

कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को आने वाला तथा भारतीय नारी को अखण्ड सुहाग देने वाला करवाचौथ का व्रत सुहागिनों का सबसे बड़ा पर्व है। पहले यह व्रत मुख्यत: उत्तरी भारत में मनाया जाता था।

करवे का अर्थ
'करवे' का अर्थ है- मिट्टी का बर्तन और 'चौथ' का अर्थ है- चतुर्थी। करवाचौथ का व्रत सुहागिन स्त्रियां रखती हैं तथा अपने पति की लम्बी आयु और खुशहाल जीवन की कामना करती हैं। करवाचौथ पर 'करवे' का विशेष रूप से पूजन किया जाता है। स्त्री धर्म की मर्यादा 'करवे' की भांति ही होती है। जिस प्रकार 'करवे' की सीमाएं हैं, उसी प्रकार स्त्री धर्म की भी अपनी सीमाएं हैं।

व्रत की शुरुआत
विभिन्न पौराणिक कथाओं के अनुसार करवाचौथ के व्रत का उद्गम उस समय हुआ था जब देवों और दानवों के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था और युद्ध में देवता परास्त होते नजर आ रहे थे। तब देवताओं ने ब्रह्माï जी से इसका कोई उपाय करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने देवताओं की करुण पुकार सुनकर उन्हें सलाह दी कि अगर आप सभी देवों की पत्नियां सच्चे और पवित्र हृदय से अपने पतियों के लिए प्रार्थना एवं उपवास करें तो देवता दैत्यों को परास्त करने में सफल होंगे। ब्रह्मा जी की सलाह मानकर सभी देव पत्नियों ने कार्तिक मास की चतुर्थी को व्रत किया और रात्रि के समय चंद्रोदय से पहले ही देवता युद्ध जीत गए। तब चंद्रोदय के पश्चात् दिन भर से भूखी-प्यासी देव पत्नियों ने अपना-अपना व्रत खोला। ऐसी मान्यता है कि तभी से करवाचौथ व्रत किए जाने की परंपरा शुरू हुई।